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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 11

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    सूक्त - ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त

    अ॒भि त्वा॑ जरि॒माहि॑त॒ गामु॒क्षण॑मिव॒ रज्ज्वा॑। यस्त्वा॑ मृ॒त्युर॒भ्यध॑त्त॒ जाय॑मानं सुपा॒शया॑। तं ते॑ स॒त्यस्य॒ हस्ता॑भ्या॒मुद॑मुञ्च॒द्बृह॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । ज॒रि॒मा । अ॒हि॒त । गाम् । उ॒क्षण॑म्ऽइव । रज्ज्वा॑ । य: । त्वा॒ । मृ॒त्यु: । अ॒भि॒ऽअध॑त्त । जाय॑मानम् । सु॒ऽपा॒शया॑ । तम् । ते॒ । स॒त्यस्य॑ । हस्ता॑भ्याम् । उत् । अ॒मु॒ञ्च॒त् । बृह॒स्पति॑: ॥११.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा जरिमाहित गामुक्षणमिव रज्ज्वा। यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया। तं ते सत्यस्य हस्ताभ्यामुदमुञ्चद्बृहस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । जरिमा । अहित । गाम् । उक्षणम्ऽइव । रज्ज्वा । य: । त्वा । मृत्यु: । अभिऽअधत्त । जायमानम् । सुऽपाशया । तम् । ते । सत्यस्य । हस्ताभ्याम् । उत् । अमुञ्चत् । बृहस्पति: ॥११.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 11; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    [हे प्राणी !] (जरिमा) निर्बलता ने (त्वा) तुझको (अभि अहित) बाँधा है, (उक्षणम्) बलवान् (गाम् इव) बैल को जैसे (रज्ज्वा) रस्सी से (यः मृत्युः) जिस मृत्यु ने (जायमानम्) उत्पन्न वा प्रसिद्ध होते हुए (त्वा) तुझको (सुपाशया) दृढ़ फंदे से (अभि अधत्त) बन्धन में किया है, (तम्) उस [मृत्यु] को (सत्यस्य) सत्य के (ते) तेरे (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों के हित के लिये (बृहस्पतिः) बड़ों-बड़ों के रक्षक [देवगुरु] परमेश्वर वा आचार्य ने [तुझसे] (उत् अमुञ्चत्) छुड़ा दिया है ॥८॥

    भावार्थ - मनुष्य जन्म से लेकर भूख, पियास, रोग आदि विपत्तियों से ईश्वरदत्त ज्ञान और विद्वानों की रक्षा तथा शिक्षा द्वारा छूटकर दोनों हाथों अर्थात् सब प्रकार से धर्म आचरण के लिये आगे बढ़ता है ॥८॥

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