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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
    86

    अ॒भि त्वा॑ जरि॒माहि॑त॒ गामु॒क्षण॑मिव॒ रज्ज्वा॑। यस्त्वा॑ मृ॒त्युर॒भ्यध॑त्त॒ जाय॑मानं सुपा॒शया॑। तं ते॑ स॒त्यस्य॒ हस्ता॑भ्या॒मुद॑मुञ्च॒द्बृह॒स्पतिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । त्वा॒ । ज॒रि॒मा । अ॒हि॒त । गाम् । उ॒क्षण॑म्ऽइव । रज्ज्वा॑ । य: । त्वा॒ । मृ॒त्यु: । अ॒भि॒ऽअध॑त्त । जाय॑मानम् । सु॒ऽपा॒शया॑ । तम् । ते॒ । स॒त्यस्य॑ । हस्ता॑भ्याम् । उत् । अ॒मु॒ञ्च॒त् । बृह॒स्पति॑: ॥११.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि त्वा जरिमाहित गामुक्षणमिव रज्ज्वा। यस्त्वा मृत्युरभ्यधत्त जायमानं सुपाशया। तं ते सत्यस्य हस्ताभ्यामुदमुञ्चद्बृहस्पतिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । त्वा । जरिमा । अहित । गाम् । उक्षणम्ऽइव । रज्ज्वा । य: । त्वा । मृत्यु: । अभिऽअधत्त । जायमानम् । सुऽपाशया । तम् । ते । सत्यस्य । हस्ताभ्याम् । उत् । अमुञ्चत् । बृहस्पति: ॥११.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 11; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    रोग नाश करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    [हे प्राणी !] (जरिमा) निर्बलता ने (त्वा) तुझको (अभि अहित) बाँधा है, (उक्षणम्) बलवान् (गाम् इव) बैल को जैसे (रज्ज्वा) रस्सी से (यः मृत्युः) जिस मृत्यु ने (जायमानम्) उत्पन्न वा प्रसिद्ध होते हुए (त्वा) तुझको (सुपाशया) दृढ़ फंदे से (अभि अधत्त) बन्धन में किया है, (तम्) उस [मृत्यु] को (सत्यस्य) सत्य के (ते) तेरे (हस्ताभ्याम्) दोनों हाथों के हित के लिये (बृहस्पतिः) बड़ों-बड़ों के रक्षक [देवगुरु] परमेश्वर वा आचार्य ने [तुझसे] (उत् अमुञ्चत्) छुड़ा दिया है ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य जन्म से लेकर भूख, पियास, रोग आदि विपत्तियों से ईश्वरदत्त ज्ञान और विद्वानों की रक्षा तथा शिक्षा द्वारा छूटकर दोनों हाथों अर्थात् सब प्रकार से धर्म आचरण के लिये आगे बढ़ता है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(अभि अहित)। अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। अश्वाभिधानी=अश्वबन्धनरज्जुः। ततो लुङ्। स्थाध्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति इत्त्वकित्त्वे। बद्धं कृतवान्। (त्वा)। त्वां प्राणिनम्। (जरिमा)। हृभृधृसृस्तृशॄभ्य इमनिच्। उ० ४।१४८। इति जॄष् वयोहानौ-इमनिच्। जरा। निर्बलता। (गाम्)। वृषभम्। (उक्षणम्)। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वा षपूर्वस्य निगमे। पा० ६।४।९। इति दीर्घाभावः। उक्षाणाम्। बलवन्तम्। (इव)। यथा (रज्ज्वा)। सृजेरसुम् च। उ० १।१५। इति सृज त्यागे-उ। रूपसिद्धिर्निपातः। सृज्यते रच्यते इति। बन्धनसाधनवस्तुना। (यः)। (त्वा)। (मृत्युः)। (अभि-अधत्त)। धाञो लङ्। अबध्नात्। (जायमानम्)। उत्पद्यमानम्। प्रसिद्धिं कुर्वन्तम्। (सुपाशया)। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेया०। पा० ७।१।३९। इति तृतीयाविभक्तौ या। सुपाशेन। दृढबन्धनेन। (तम्)। (मृत्युम् ते)। तव। (सत्यस्य)। यथार्थनियमस्य। (हस्ताभ्याम्)। कराभ्याम् तयोर्हितार्थम्। (उत् अमुञ्चत्)। उदमोचयत्। (बृहस्पतिः)। म० ४। बृहतां पतिः। देवगुरुः। परमेश्वरः। (आचार्यः) ॥

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    विषय

    सत्यव्यवहार से मृत्युबन्धनमुक्ति

    पदार्थ

    १. हे जीव! (इव) = जैसे (उक्षणं गाम्) = शक्ति का सेचन करनेवाले वृषभ को (रज्ज्वा) = रस्सी से बाँधते हैं, इसीप्रकार (त्वा) = तुझे (जरिमा) = यह जरा (अभि, अहित) = बाँधती है। (जायमानम्) = उत्पन्न होते हुए ही (त्वा) = तुझे (यः मृत्युः) = जो मृत्यु (सुपाशया) = दृढ़ पाश से (अभ्यधत्त) = बाँधती है, (सत्यस्य हस्ताभ्याम्) = सत्य के हाथों के द्वारा (ते) = तेरी (तम्) = उस मृत्यु को (बृहस्पति:) = ज्ञान की देवता (उदमुञ्चत्) = छुड़ा देता है। २. मनुष्य उत्पन्न होते ही मृत्यु के बन्धन में बद्ध हो जाता है। सत्य का व्यवहार इसे मृत्यु के बन्धन से छुड़ाता है।

    भावार्थ

    सत्य का व्यवहार दीर्घजीवन का कारण है।

    विशेष

    अग्निहोत्र आदि साधनों से दीर्घजीवन प्राप्त करनेवाला यह 'ब्रा' बनता है। यह उत्तम घर का निर्माण करता है। इस घर का वर्णन ही अगले सूक्त में है -

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    भाषार्थ

    [हे व्याधिनिर्मुक्त!] (त्वा) तुझे (जरिमा) जरा ने (अभि अहित) बाँध लिया है, (गाम् उक्षणम्) गौ और बैल को (रज्वा इव) रस्सी द्वारा जैसे [बाँधा जाता है]। (जायमानं त्वा) पैदा होते हुए तुझे (य: मृत्युः) जिस मृत्यु ने (सुपाशया) उत्तम फंदे द्वारा (अभि अधत्त) बाँधा था, (ते) तेरे (तम्) उस मृत्युपाश को (बृहस्पतिः) वेदवार के पति ने (सत्यस्य हस्ताभ्याम्) सच्चाई वाले दो हाथों द्वारा (राज्य) उन्मुक्त कर दिया है, छोड़ दिया है।

    टिप्पणी

    [अभि अहित= अभिपूर्वों दधातिर्बन्धने वर्तते यथा" अश्वाभिधानीमा दते", दधातेर्लुङ् (सायण)। सुपाशया= पाश को सुपाशा कहा है। यह उत्तम पाश है, यतः इस नाल से बंधी सन्तान पैदा होती है। यह है नाभि-नालरूपी पाश अर्थात् रस्सी। मृत्युः=प्रत्येक प्राणी के पैदा होते ही उसके साथ मृत्यु का सम्बन्ध रहता है, जो पैदा होता है उसकी मृत्यु भी अवश्यम्भावी है। बृहस्पतिः=बृहती वेदवाक्, उसका पतिः, वेदज्ञ विद्वान्। हस्ताभ्याम् यथा "हस्ताभ्यां दशशाखाभ्याम्...ताभ्यां त्वाभि मृशामसि" (अथर्व ४।१३।७)। अभिमर्शन=स्पर्श करना। स्पर्शकर्ता के दोनों हाथ सत्यकर्मा होने चाहिएँ तभी इन द्वारा स्पर्श करने से रोगी रोग मुक्त हो सकता है, अन्यथा नहीं।]

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    विषय

    आरोग्य और दीर्घायु होने के उपाय ।

    भावार्थ

    हे बालक ! (वा) तुझको (जरिमा) बुढ़ापे ने भी (अहित) इस प्रकार बांध लिया है जैसे (रज्ज्वा) रस्सी से (उक्षणम् गाम् इव) वृषभ, वैल को बांध लेते हैं । अर्थात् अब तेरे जीते रहने पर भी तुझे जीवन के अन्त में बुढ़ापा तो अवश्य ही आवेगा । शेष रही बाल्यकाल की मृत्यु । (यः मृत्युः) जिस अकालमृत्यु ने (जायमानं त्वा) उत्पन्न होते ही तुझको (सुपाशया) दृढ़ फांसे से (अभि अधत्त) फांस लिया है (ते तं) तेरे उस फंदे को (बृहस्पतिः) विश्व का पति परमात्मा या वाचस्पति वैद्य (सत्यस्य हस्ताभ्याम्) सत्य के हाथों से अर्थात् वास्तविक सत्य औषध-प्रयोग और तेरे आत्मा के शेष पुण्य (उद् अमुंञ्चद्) खोल डाले, ढीला कर देवे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा भृग्वङ्गिराश्च ऋषि । ऐन्द्राग्न्युषसो यक्ष्मनाशनो वा देवता । ४ शक्वरीगर्भा जगती । ५, ६ अनुष्टुभौ । ७ उष्णिग् बृहतीगर्भा । पण्यापक्तिः । ८ त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती । १ - ३ त्रिष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life and Yakshma Cure

    Meaning

    O man bound by age like a virile bull tied by rope, whom death seizes as soon as bom, with beautiful snares of the world and holy bonds of nature’s laws of Dharma, may Brhaspati, lord of Infinity beyond death, release and liberate you from these bonds of life and death with the hands of Truth and Dharma.

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    Translation

    May the ripe old age take hold of you as a steer is tied with a rope. From the death, which had caught you in its fine noose as soon as you were born, the Lord supreme has released you with the hands of your truth.(satyasya).

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    Translation

    O’ Patient; the old age has bound you as the people bind the strong bull with rope. May great God, the Lord of Vedic speech, with the hands of truth save you from that mortality which binds you with the firmly knotted noose at the time when you re-born.

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    Translation

    Old age hath girt thee with its bonds even as they bind a bull or a cow with rope. The death held thee at thy birth bound with a family knotted noose, therefore, with both the hands of Truth, God has loosened thee.

    Footnote

    Both hands of truth: the true, efficacious medicine and the true virtuous acts of a man.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अभि अहित)। अभिपूर्वो दधातिर्बन्धने। अश्वाभिधानी=अश्वबन्धनरज्जुः। ततो लुङ्। स्थाध्वोरिच्च। पा० १।२।१७। इति इत्त्वकित्त्वे। बद्धं कृतवान्। (त्वा)। त्वां प्राणिनम्। (जरिमा)। हृभृधृसृस्तृशॄभ्य इमनिच्। उ० ४।१४८। इति जॄष् वयोहानौ-इमनिच्। जरा। निर्बलता। (गाम्)। वृषभम्। (उक्षणम्)। श्वन्नुक्षन्पूषन्०। उ० १।१५९। इति उक्ष सेचने वृद्धौ च-कनिन्। उक्षण उक्षतेर्वृद्धिकर्मणः-निरु० १२।९। वा षपूर्वस्य निगमे। पा० ६।४।९। इति दीर्घाभावः। उक्षाणाम्। बलवन्तम्। (इव)। यथा (रज्ज्वा)। सृजेरसुम् च। उ० १।१५। इति सृज त्यागे-उ। रूपसिद्धिर्निपातः। सृज्यते रच्यते इति। बन्धनसाधनवस्तुना। (यः)। (त्वा)। (मृत्युः)। (अभि-अधत्त)। धाञो लङ्। अबध्नात्। (जायमानम्)। उत्पद्यमानम्। प्रसिद्धिं कुर्वन्तम्। (सुपाशया)। सुपां सुलुक्पूर्वसवर्णाच्छेया०। पा० ७।१।३९। इति तृतीयाविभक्तौ या। सुपाशेन। दृढबन्धनेन। (तम्)। (मृत्युम् ते)। तव। (सत्यस्य)। यथार्थनियमस्य। (हस्ताभ्याम्)। कराभ्याम् तयोर्हितार्थम्। (उत् अमुञ्चत्)। उदमोचयत्। (बृहस्पतिः)। म० ४। बृहतां पतिः। देवगुरुः। परमेश्वरः। (आचार्यः) ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    [হে ব্যাধিনির্মুক্ত !] (ত্বা) তোমাকে (জরিমা) জরা (অভি অহিত) বেঁধে ফেলেছে, (গাম্ উক্ষণম্) গাভী ও বলদকে (রজ্জ্বা ইব) রজ্জু/দড়ির দ্বারা যেভাবে [বাঁধা হয়]। (জায়মানং ত্বা) জায়মান/জন্মকালে তোমাকে (যঃ মৃত্যুঃ) যেই মৃত্যু (সুপাশয়া) উত্তম ফাঁদ/বন্ধন দ্বারা (অভি অধত্ত) বেঁধেছিল/বন্ধন করেছিল/আবদ্ধ করেছিল, (তে) তোমার (তম্) সেই মৃত্যু ফাঁদকে (বৃহস্পতিঃ) বেদবাণীর পতি (সত্যস্য হস্তাভ্যাম্) সত্যস্বরূপ দুই হাতের দ্বারা (উদমুঞ্চৎ) উন্মুক্ত করে দিয়েছে।

    टिप्पणी

    [অভি অহিত= অভিপূর্বো দধাতির্বন্ধনে বর্ততে যথা "অশ্বাভিধানীমা দত্তে", দধাতের্লুঙ্ (সায়ণ)। সুপাশয়া=পাশ/ফাঁদকে সুপাশা বলা হয়েছে। ইহা উত্তম পাশ, যতঃ এই নালীর সাথে বাঁধা সন্তান জন্ম নেয়। এটা হলো নাভি নালরূপী পাশ অর্থাৎ রজ্জু। মৃত্যুঃ= প্রত্যেক প্রাণীর জন্মের সাথেই তার সাথে মৃত্যুর সম্বন্ধ থাকে, যে জন্মগ্রহণ করে তার মৃত্যু অবশ্যম্ভাবী। বৃহস্পতিঃ=বৃহতী বেদবাক্, তার পতি, বেদজ্ঞ বিদ্বান্। হস্তাভ্যাম্ যথা "হস্তাভ্যাং দশশাখাভ্যাম্......তাভ্যাং ত্বাভি মৃশামসি" (অথর্ব ৪।১৩।৬, ৭)। অভিমর্শন=স্পর্শ করা। স্পর্শকর্তার দুই হাত সত্যকর্মা হওয়া উচিত তবেই হাত দ্বারা স্পর্শ করলে রোগী রোগমুক্ত হতে পারে, অন্যথা নয়।]

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    मन्त्र विषय

    রোগনাশনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    [হে প্রাণী !] (জরিমা) নির্বলতা (ত্বা) তোমাকে (অভি অহিত) আবদ্ধ করেছে, (উক্ষণম্) বলবান্ (গাম্ ইব) বলদকে যেমন (রজ্জ্বা) রজ্জু দ্বারা বাঁধে/আবদ্ধ করে। (যঃ মৃত্যুঃ) যে মৃত্যু (জায়মানম্) উৎপন্ন বা প্রসিদ্ধ (ত্বা) তোমাকে (সুপাশয়া) দৃঢ় বন্ধন দ্বারা (অভি অধত্ত) বন্ধনে আবদ্ধ করেছে, (তম্) সেই [মৃত্যু]কে (সত্যস্য) সত্যের (তে) তোমার (হস্তাভ্যাম্) দুই হাতের হিতের জন্য (বৃহস্পতিঃ) বৃহৎ-মহৎ এর রক্ষক [দেবগুরু] পরমেশ্বর বা আচার্য [তোমার থেকে] (উৎ অমুঞ্চৎ) ছিন্ন করে দিয়েছে ॥৮॥

    भावार्थ

    মনুষ্য জন্ম থেকে ক্ষুধা, তৃষ্ণা, রোগ আদি বিপত্তি থেকে ঈশ্বরপ্রদত্ত জ্ঞান এবং বিদ্বানদের রক্ষা ও শিক্ষা দ্বারা মুক্ত হয়ে দুই হাত অর্থাৎ সব প্রকারে ধর্ম আচরণের জন্য অগ্রগামী হয় ॥৮॥

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