अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 2
ऋषिः - ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः
देवता - इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
98
यदि॑ क्षि॒तायु॒र्यदि॑ वा॒ परे॑तो॒ यदि॑ मृ॒त्योर॑न्ति॒कं नी॑त ए॒व। तमा ह॑रामि॒ निरृ॑तेरु॒पस्था॒दस्पा॑र्षमेनं श॒तशा॑रदाय ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । क्षि॒तऽआ॑यु: । यदि॑ । वा॒ । परा॑ऽइत: । यदि॑ । मृ॒त्यो: । अ॒न्ति॒कम् । निऽइ॑त: । ए॒व । तम् । आ । ह॒रा॒मि॒ । नि:ऽऋ॑ते: । उ॒पस्था॑त् । अस्पा॑र्शम् । ए॒न॒म् । श॒तऽशा॑रदाय ॥११.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव। तमा हरामि निरृतेरुपस्थादस्पार्षमेनं शतशारदाय ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । क्षितऽआयु: । यदि । वा । पराऽइत: । यदि । मृत्यो: । अन्तिकम् । निऽइत: । एव । तम् । आ । हरामि । नि:ऽऋते: । उपस्थात् । अस्पार्शम् । एनम् । शतऽशारदाय ॥११.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
रोग नाश करने के लिये उपदेश।
पदार्थ
(यदि) चाहे [यह] (क्षितायुः) टूटी आयुवाला, (यदि वा) अथवा (परेतः) अङ्ग-भङ्ग है, (यदि) चाहे (मृत्योः) मृत्यु के (अन्तिकम्) समीप (एव) ही (नीतः=नि−इतः) आ चुका है। (तम्) उसको (निर्ऋतेः) महामारी की (उपस्थात्) गोद से (आ हरामि) लिये आता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय+जीवनाय) सौ शरद् ऋतुओंवाले [जीवन] के लिये (अस्पार्षम्) मैंने प्रबल किया है ॥२॥
भावार्थ
जैसे चतुर वैद्यरत्न यत्न करके भारी-२ रोगियों को चङ्गा करता है, ऐसे ही मनुष्य शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक कठिन संकट पड़ने पर अपने आत्मा को प्रबल रक्खे ॥२॥ अथर्व० १।३५।१। में ‘दीर्घायुत्वाय शतशारदाय’ पाठ है, यहाँ ‘जीवनाय’ पद मन्त्र १ से लाया गया है ॥ अन्य दो संहिताओं, सायणभाष्य और ऋग्वेद में ‘अस्पार्षम्’ पाठ है, परन्तु बम्बई गवर्नमेंट संहिता में शोधा हुआ और अथर्व० का० २० सू० ९६ म० ७ में ‘अस्पार्शम्’ पाठ है। हमने ‘अस्पार्षम्’ लिया है ॥
टिप्पणी
२−(यदि)। चेत्। (क्षितायुः)। क्षीणजीवनः। (यदि वा)। अथवा। (परेतः)। परा भङ्गे+इण् गतौ-क्त। भङ्गं प्राप्तः। (मृत्योः)। मरणस्य, (अन्तिकम्)। अन्त-मत्वर्थीयो ठन्, तस्य इकः। निकटम्। (नीतः)। नि+इतः। नीचैर्गतः। (एव)। अवश्यम्। (तम्)। रोगिणम्। (आ हरामि)। आ नयामि। (निर्ऋतेः)। अ० २।१०।१। निर्ऋतिः=कृच्छ्रापत्तिः-निरु० २।७। महारोगस्य। अलक्ष्म्याः। (उपस्थात्)। उपस्थानात्। अङ्कात्। (अस्पार्षम्)। स्पृ प्रीतिबलनयोः, छान्दसो लुङ्। प्रबलं कृतवानस्मि। (एनम्)। समीपस्थम्। आत्मानम्। (शतशारदाय)। अ० १।३५।१। शतशरदृतुयुक्ताय, जीवनाय, इति शेषः-म० १ ॥
विषय
"क्षितायु व परेत' की रोगनिवृत्ति
पदार्थ
१. (यदि) = यदि (क्षितायु:) = यह रागी क्षीण जीवनवाला हो गया हो, (यदि वा) = अथवा (परा इत:) = यह रोगों में दूर चला गया हो, (यदि) = यदि (मृत्योः अन्तिकम्) = मृत्यु के समीप (एव) = ही (नीत:) = ले-जाया गया है, अर्थात् एकदम मरणासन्न हो तो भी (तम्) = उस रोगी को (निते: उपस्थात्) = दुर्गति [मृत्यु] की गोद से (आहरामि) = मैं वापस ले-आता हूँ। हवि के द्वारा इसे रोगों से मुक्त कर देता हूँ। २. मैं (एनम्) = इसे (शतशारदाय) = सौ वर्ष के दीर्घजीवन के लिए (अस्पार्शम्) = [अस्पार्षम्] बल व प्राणयुक्त करता हूँ अथवा इसे छूता हूँ [स्पृश] और छूकर रोग निवृत्त करता हूँ।
भावार्थ
क्षीण जीवनवाले, बढ़े हुए रोगबाले, मरणासन्न पुरुष को भी मैं बल व प्राणयुक्त करके दीर्घजीवनवाला करता हूँ।
भाषार्थ
(यदि क्षितायुः) यदि यह क्षीणायु हो गया है, (यदि वा) या (परेत:) आरोग्यवस्था से परे हो गया है, (यदि मृत्यो: अन्तिकम्, नीत एव) यदि मृत्यु के समीप ही प्राप्त हो गया है, तो भी (तम्) उसको (निर्ऋते:) कृच्छापत्ति की (उपस्थात्) गोद से (आ हरामि) मैं छीन लाता हूँ, (एनम्) इसको (शतशारदाय)१ सौ वर्षों के जीवन के लिए (अस्पार्शम्) मैंने स्पर्श कर दिया है।
टिप्पणी
[हस्तस्पर्श द्वारा चिकित्सक रोगी में शक्तिसंचार कर उसे रोग से मुक्त कर देता है। देखो (अथर्व० २०।९६।६-१०)। निर्ऋतिः=कृच्छापत्तिः (निरुक्त २।२९)।]
विषय
आरोग्य और दीर्घायु होने के उपाय ।
भावार्थ
(यदि) यदि यह बालक (क्षितायुः) रोग से अपनी जीवन-शक्ति को खो भी चुका हो, (यदि वा) और चाहे यह बालक (परेतः) और भी परली, निराशाजनक दशा को पहुंच गया हो, यदि (मृत्योः) शरीर के प्राण से छूट जाने की दशा के (अन्तिकं) समीप तक भी (नीत एव) पहुंच ही गया हो। तो भी (तं) उस बालक को मैं, उपायज्ञ पुरुष (निर्ऋतेः) मृत्यु के या रोगकारी कारणों के (उपस्थात्) चंगुल से पुनः (आहरामि) फिर लौटा लेता हूं । (एनं) और इस बालक को (शतशारदाय) सौ वर्ष का जीवन बिताने के लिये (अस्पार्षम्) पुनः बलवान् कर देता हूं ।
टिप्पणी
(च०) ‘अस्पार्शम्’ इति श० पा० । (प्र०) ‘यदु खरायुर्यदि [ ? ]’ इति पैप्प० सं० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा भृग्वङ्गिराश्च ऋषि । ऐन्द्राग्न्युषसो यक्ष्मनाशनो वा देवता । ४ शक्वरीगर्भा जगती । ५, ६ अनुष्टुभौ । ७ उष्णिग् बृहतीगर्भा । पण्यापक्तिः । ८ त्र्यवसाना षट्पदा बृहतीगर्भा जगती । १ - ३ त्रिष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ।
इंग्लिश (4)
Subject
Long Life and Yakshma Cure
Meaning
If the patient is extremely debilitated, sunk beyond hope, almost gone to the brink of death, I touch and retrieve him from the depth of despair to live his full hundred years of life. (The word ‘asparsham’ suggests the efficacy of touch therapy.)
Translation
Even if his days of life have come to an end, even if he is to depart from this world, and even if he has been carried very close to death, I hereby bring him back from the very lap of perdition, I have strengthened him to live through a hundred autumns. (cf.Rv. X.161.2)
Translation
O’ patient; I free you from the decline unknown and from the consumption with the oblation of Yajna to live with pleasure. If rheumatism has grasped this man let air and electric shock free him from this disease.
Translation
Be his days ended, be his case hopeless be he brought very near to death already; I bring him back from the lap of Death, and grant him strength to live for a hundred years.
Footnote
I refers to a physician, he to a patient.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(यदि)। चेत्। (क्षितायुः)। क्षीणजीवनः। (यदि वा)। अथवा। (परेतः)। परा भङ्गे+इण् गतौ-क्त। भङ्गं प्राप्तः। (मृत्योः)। मरणस्य, (अन्तिकम्)। अन्त-मत्वर्थीयो ठन्, तस्य इकः। निकटम्। (नीतः)। नि+इतः। नीचैर्गतः। (एव)। अवश्यम्। (तम्)। रोगिणम्। (आ हरामि)। आ नयामि। (निर्ऋतेः)। अ० २।१०।१। निर्ऋतिः=कृच्छ्रापत्तिः-निरु० २।७। महारोगस्य। अलक्ष्म्याः। (उपस्थात्)। उपस्थानात्। अङ्कात्। (अस्पार्षम्)। स्पृ प्रीतिबलनयोः, छान्दसो लुङ्। प्रबलं कृतवानस्मि। (एनम्)। समीपस्थम्। आत्मानम्। (शतशारदाय)। अ० १।३५।१। शतशरदृतुयुक्ताय, जीवनाय, इति शेषः-म० १ ॥
बंगाली (2)
भाषार्थ
(যদি ক্ষিতায়ুঃ) যদিওবা [এই রুগ্ণ] ক্ষীণায়ুঃ হয়ে গেছে, (যদি বা) অথবা যদি (পরেতঃ) আরোগ্য অবস্থা থেকে দূরে চলে গেছে, (যদি মৃত্যোঃ অন্তিকম্, নীত এব) যদি মৃত্যুর নিকটবর্তী হয়ে গেছে, তবুও (তম্) তাঁকে (নির্ঋতেঃ) কৃচ্ছ্রাপত্তির (উপস্থাৎ) কোল থেকে (আ হরামি) আমি হরণ করি, (এনম্) একে [এই রুগ্ণকে] (শতশারদায়)১ শত বছরের জীবনের জন্য (অস্পার্শম্) আমি স্পর্শ করে দিয়েছি।
टिप्पणी
[হস্তস্পর্শ দ্বারা চিকিৎসা রোগীর মধ্যে শক্তিসঞ্চার করে তাঁকে রোগমুক্ত করে দেয়। দেখো (অথর্ব০ ২০।৯৬।৬-১০)। নির্ঋতিঃ = কৃচ্ছ্রাপত্তিঃ (নিরুক্ত ২।২।৬)।] [১. গ্রীষ্ম-ঋতুতে ব্যক্তি ক্ষীণ হয়ে যায়, এবং শরৎকালে সুস্থ।]
मन्त्र विषय
রোগনাশনায়োপদেশঃ
भाषार्थ
(যদি) যদিও [এই প্রাণী] (ক্ষিতায়ুঃ) ক্ষীণ আয়ুসম্পন্ন, (যদি বা) অথবা (পরেতঃ) অঙ্গ-ভঙ্গ রয়েছে, (যদি) যদিও (মৃত্যোঃ) মৃত্যুর (অন্তিকম্) কাছে (এব) ই (নীতিঃ=নি−ইতঃ) এসে গেছে/নিকটে। (তম্) তাঁকে (নির্ঋতেঃ) মহামারীর (উপস্থাৎ) কোল থেকে (আ হরামি) নিয়ে আসি, (এনম্) একে [এই প্রাণীকে] (শতশারদায়+জীবনায়) শত শরৎ ঋতুসম্পন্ন [জীবন] এর জন্য (অস্পার্ষম্) আমি প্রবল করেছি॥২॥
भावार्थ
যেমন চতুর বৈদ্য প্রচেষ্টাপূর্বক মুমূর্ষু রোগীদের সতেজ করে, এভাবেই মনুষ্য শারীরিক, আত্মিক ও সামাজিক কঠিন সংকট পড়লে নিজের আত্মাকে প্রবল রাখুক ॥২॥ অথর্ব০ ১।৩৫।১। এ ‘দীর্ঘায়ুত্বায় শতশারদায়’ পাঠ আছে, এখানে ‘জীবনায়’ পদ মন্ত্র ১ থেকে নেওয়া হয়েছে ॥ অন্য দুটি সংহিতা, সায়ণভাষ্য ও ঋগ্বেদে ‘অস্পার্ষম্’ পাঠ আছে, কিন্তু মুম্বাই গভর্নমেন্ট সংহিতায় সম্পাদিত এবং অথর্ব০ কা০ ২০ সূ০ ৯৬ ম০ ৭ এ ‘অস্পার্শম্’ পাঠ আছে। আমি ‘অস্পার্ষম্’ নিয়েছি ॥
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