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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 11 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 11/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ब्रह्मा, भृग्वङ्गिराः देवता - इन्द्राग्नी, आयुः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - शक्वरीगर्भा जगती सूक्तम् - दीर्घायुप्राप्ति सूक्त
    92

    श॒तं जी॑व श॒रदो॒ वर्ध॑मानः श॒तं हे॑म॒न्तान्छ॒तमु॑ वस॒न्तान्। श॒तं त॒ इन्द्रो॑ अ॒ग्निः स॑वि॒ता बृह॒स्पतिः॑ श॒तायु॑षा ह॒विषाहा॑र्षमेनम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तम् । जी॒व॒ । श॒रद॑: । वर्ध॑मान: । श॒तम् । हे॒म॒न्तान् । श॒तम् । ऊं॒ इति॑ । व॒स॒न्तान् ।श॒तम् । ते॒ । इन्द्र॑: । अ॒ग्नि: । स॒वि॒ता । बृह॒स्पति॑: । श॒तऽआ॑युषा । ह॒विषा॑ । आ । अ॒हा॒र्ष॒म् । ए॒न॒म् ॥११.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्तान्छतमु वसन्तान्। शतं त इन्द्रो अग्निः सविता बृहस्पतिः शतायुषा हविषाहार्षमेनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतम् । जीव । शरद: । वर्धमान: । शतम् । हेमन्तान् । शतम् । ऊं इति । वसन्तान् ।शतम् । ते । इन्द्र: । अग्नि: । सविता । बृहस्पति: । शतऽआयुषा । हविषा । आ । अहार्षम् । एनम् ॥११.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    रोग नाश करने के लिये उपदेश।

    पदार्थ

    (वर्धमानः+त्वम्) बढ़ती करता हुआ तू (शतम् शरदः) सौ शरद् ऋतुओं तक (शतम् हेमन्तान्) सौ शीत ऋतुओं तक (उ) और (शतम् वसन्तान्) सौ वसन्त ऋतुओं तक (जीव) जीता रह। (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (अग्निः) तेजस्वी विद्वान्, (सविता) सबका चलानेवाला, (बृहस्पतिः+अहं जीवः) बड़ों-बड़ों के रक्षक मैंने (शतम्) अनेक प्रकार से (ते) तेरेलिये (शतायुषा) सैकड़ों जीवन शक्तिवाले (हविषा) आत्मदान वा भक्ति से (एनम्) इस [आत्मा] को (आ अहार्षम्) उभारा है ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्य उचित रीति से वर्षा, शीत और उष्ण ऋतुओं को सहकर बहु प्रकार मन्त्रोक्त विधि पर विद्यादिबल से शक्तिमान् होकर जीविका उपार्जन करता हुआ आत्मा की उन्नति करे ॥४॥ ऋग्वेद में (इन्द्रः अग्निः)=इन्द्राग्नी और (आ अहार्षम् एनम्)=[इमम् पुनः दुः] ॥

    टिप्पणी

    ४−(शतम्)। बहुनाम। (जीव)। प्राणान् धारय। (शरदः)। शरदृतून् वर्षाकालान् इत्यर्थः। (वर्धमानः)। वृद्धिं कुर्वाणः। हेमन्तान्। हन्तेर्मुट् हि च। उ० ३।१२९। इति हन वधगत्योः-झच्, हन्तेर्हि, मुडागमः। हन्ति उष्णत्वम्। शीतकालान्। (उ)। समुच्चये। (वसन्तान्)। तॄभूवहिवसिभासि०। उ० ३।१२८। इति वस वासे, निवासे, आच्छादने च-झच्। पुष्पसमयान्। ग्रीष्मकालान्। (शतम्)। यथा तथा। बहुप्रकारेण। (ते)। तुभ्यम्। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान्। (अग्निः)। अगि गतौ-नि। ज्ञानवान्। (सविता)। सर्वस्य प्रेरकः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। तथा २।१३।२। बृहत्+पतिः, सुट्, तलोपः। बृहतां विदुषां कर्मणां वा पालकः। इन्द्रादीनि चत्वारि (अहम्) इति पदस्य विशेषणानि। अन्यद् व्याख्यातम्-म० ३ ॥

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    विषय

    दीर्घजीवन के साधक, 'अग्नि, इन्द्र, सविता व बृहस्पति'

    पदार्थ

    १. अग्निहोत्र द्वारा रोगविमुक्त हे पुरुष! (शतं शरदः) = सौ वर्षपर्यन्त (वर्धमान:) = सब शक्तियों की दृष्टि से वृद्धि को प्रास होता हुआ तू (जीव) = जीवन धारण कर। (शतं हेमन्तान्) = सौ हेमन्त ऋतुओं तक तू जी। (उ) = और (शतं वसन्तान्) = सौ वसन्त ऋतुओं तक जीनेवाला बन । सर्दी, गर्मी, वर्षा सभी ऋतुओं में नीरोग रहता हुआ तू सौ वर्ष तक जीनेवाला बन। २. (इन्द्रः) = जितेन्द्रयता की देवता, (अग्नि:) = प्रगति की भावना, (सविता) = निर्माण की प्रवृत्ति तथा (बृहस्पति:) = ज्ञान की अधिष्ठातृदेवता-ये सब (ते) = तेरे लिए (शतम्) = शतवर्ष के जीवन को करनेवाले हों। मैं (शतायुषा) = शतवर्ष के आयुष्य को प्राप्त करानेवाले (हविषा) = हवि के द्वारा (एनम्) = इस रोगी को (आहार्षम्) = रोगों से बाहर ले-आता हूँ।

    भावार्थ

    अग्निहोत्र हमारे दीर्घजीवन का साधन बने। 'जितेन्द्रियता, प्रगतिशीलता, निर्माणवृत्ति, ज्ञानरुचिता' हमें दीर्घजीवन प्राप्त कराएँ।

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    भाषार्थ

    (शतं शरदः जीव) तू हे वरुण! सौ शरद्-ऋतु जीवित हो (वर्धमानः) बढ़ता हुआ, (शत हेमन्तान्) सौ हेमन्त ऋतु (उ) तथा (शतम् वसन्तान्) सौ बसन्त ऋतु [जीवित हो]। (इन्द्रः) आदित्य, (अग्निः) यज्ञियाग्नि, (सविता) सविता, (बृहस्पतिः) बृहस्पति (ते शतम्) तेरी सौ वर्षों की आयु करें, (शतायुषा हविषा) सौ वर्षों की आयु करनेवाली रोगनाशक हवि द्वारा (एनम्) इस रुग्ण को (आ हार्षम्) मैं मृत्यु से छीन लाया हूँ।

    टिप्पणी

    [सविता="तस्य कालो यदा द्यौरपहततमस्का आकीर्णरश्मिर्भवति" (निरुक्त १२।२।१२); सविता पद ७। इन्द्र है परमैश्वर्यसम्पन्न आदित्य, अर्थात् चमकता सूर्य और सविता उस काल का आदित्य है जबकि द्यौ में तो प्रकाश हो, परन्तु पृथिवी पर अभी अन्धकार की सत्ता बनी रहे। बृहस्पति है ग्रह। इसका भी सम्बन्ध आयु के साथ प्रतीत होता है। अथवा बृहस्पति है परमेश्वर जोकि बृहतों का पति है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life and Yakshma Cure

    Meaning

    Live a hundred years, O patient, rising, growing, and advancing through autumn, winter and spring seasons. May Indra, divine spirit of power and glory of energy, Agni leading light and fire of life, Savita, divine spirit of regeneration, sustenance and inspiration, and Brhaspati, lord of Infinity and spirit of expansion, bless you to live a full hundred years span of life with hundredfold joy of fulfilment. Thanks, O Lord of life, I have brought him back to good health with the light, fire and fragrances of havi capable of giving a hundredfold vitality of life.

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    Translation

    Growing always strong, may live through a hundred autumns, through a hundred winters and through a hundred springs also. May the resplendent Lord, the adorable Lord, the inspirer Lord and the Lord supreme provide you with a hundred years. I have brought him back by a dietary for hundred years. (cf.Rv. X.16.4-with variation) (Indra,Agni, Savitr and Brhaspati have been invoked one Lord with numerous names)

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    Translation

    O’ patient live a hundred autumn’s growing in Strength, live through a hundred winters and a hundred springs. May the air, fire, Sun and cloud give you the life of hundred years, as I save you from the grip of disease with the medicine giving life lasting hundred years.

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    Translation

    With medicine giving a life of hundred years, have I rescued this patient from the jaws of death. May thou live waxing in thy strength the hundred autumns, live for a hundred winters, a hundred springs. May God, the omni-scient, the Creator and Lord of the universe grant thee life for a hundred years.

    Footnote

    I: a physician. Thee: a patient.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४−(शतम्)। बहुनाम। (जीव)। प्राणान् धारय। (शरदः)। शरदृतून् वर्षाकालान् इत्यर्थः। (वर्धमानः)। वृद्धिं कुर्वाणः। हेमन्तान्। हन्तेर्मुट् हि च। उ० ३।१२९। इति हन वधगत्योः-झच्, हन्तेर्हि, मुडागमः। हन्ति उष्णत्वम्। शीतकालान्। (उ)। समुच्चये। (वसन्तान्)। तॄभूवहिवसिभासि०। उ० ३।१२८। इति वस वासे, निवासे, आच्छादने च-झच्। पुष्पसमयान्। ग्रीष्मकालान्। (शतम्)। यथा तथा। बहुप्रकारेण। (ते)। तुभ्यम्। (इन्द्रः)। ऐश्वर्यवान्। (अग्निः)। अगि गतौ-नि। ज्ञानवान्। (सविता)। सर्वस्य प्रेरकः। (बृहस्पतिः)। अ० १।८।२। तथा २।१३।२। बृहत्+पतिः, सुट्, तलोपः। बृहतां विदुषां कर्मणां वा पालकः। इन्द्रादीनि चत्वारि (अहम्) इति पदस्य विशेषणानि। अन्यद् व्याख्यातम्-म० ३ ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (শতং শরদঃ জীব) তুমি হে বরুণ ! শত শরৎ-ঋতু জীবিত হও/থাকো (বর্ধমানঃ) বর্ধিত হয়ে, (শতং হেমন্তান্) শত হেমন্ত ঋতু (উ) এবং (শতম্ বসন্তান্) শত বসন্ত ঋতু [জীবিত হও/থাকো]। (ইন্দ্রঃ) আদিত্য, (অগ্নিঃ) যজ্ঞিয়াগ্নি, (সবিতা) সবিতা, (বৃহস্পতিঃ) বৃহস্পতি (তে শতম্) তোমার আয়ু শত বর্ষ করুক, (শতায়ুষা হবিষা) শত বর্ষের আয়ু সম্পাদনকারী রোগনাশক হবি দ্বারা (এনম্) এই রুগ্ণকে (আ হর্ষম) আমি মৃত্যুর থেকে হরণ করে এনেছি।

    टिप्पणी

    [সবিতা= "তস্য কালো যদা দ্যৌরপহততমস্কা আকীর্ণরশ্মির্ভবতি" (নিরুক্ত ১২।২।১২); সবিতা পদ ৭। ইন্দ্র হলো পরমৈশ্বর্যসম্পন্ন আদিত্য, অর্থাৎ উজ্জ্বল সূর্য এবং সবিতা হলো সেই সময়ের আদিত্য, যখন দ্যুলোকে আলো আছে, কিন্তু পৃথিবীতে এখনো অন্ধকারের আছে। বৃহস্পতি হলো গ্রহ। এরও সম্বন্ধ আয়ুর সাথে প্রতীত হয়। অথবা বৃহস্পতি হলেন পরমেশ্বর যিনি বৃহৎ দের পতি।]

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    मन्त्र विषय

    রোগনাশনায়োপদেশঃ

    भाषार्थ

    (বর্ধমানঃ+ত্বম্) বর্ধমান তুমি (শতম্ শরদঃ) শত শরদ্ ঋতু পর্যন্ত (শতম্ হেমন্তান্) শত শীত ঋতু পর্যন্ত (উ) এবং (শতম্ বসন্তান্) শত বসন্ত ঋতু পর্যন্ত (জীব) জীবিত থাকো। (ইন্দ্রঃ) ঐশ্বর্যবান্ (অগ্নিঃ) তেজস্বী বিদ্বান্, (সবিতা) সর্বপ্রেরক, (বৃহস্পতিঃ+অহং জীবঃ) বৃহৎ-মহৎ এর রক্ষক আমি (শতম্) অনেক প্রকারে (তে) তোমার জন্য (শতায়ুষা) শত জীবন শক্তিসম্পন্ন (হবিষা) আত্মদান বা ভক্তি দ্বারা (এনম্) এই [আত্মা]কে (আ অহার্ষম্) উন্নীত করেছি॥৪॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সঠিকভাবে বর্ষা, শীত ও উষ্ণ ঋতু সহ্য করে অনেক প্রকারে মন্ত্রোক্ত বিধির ওপর বিদ্যাদিবল দ্বারা শক্তিশালী হয়ে জীবিকা উপার্জন করে আত্মার উন্নতি করে/করুক॥৪॥ ঋগ্বেদে (ইন্দ্রঃ অগ্নিঃ)=ইন্দ্রাগ্নী এবং (আ অহার্ষম্ এনম্)=[ইমম্ পুনঃ দুঃ] ॥

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