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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 20

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 20/ मन्त्र 9
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - पञ्च प्रदिशः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रयिसंवर्धन सूक्त

    दु॒ह्रां मे॒ पञ्च॑ प्र॒दिशो॑ दु॒ह्रामु॒र्वीर्य॑थाब॒लम्। प्रापे॑यं॒ सर्वा॒ आकू॑ती॒र्मन॑सा॒ हृद॑येन च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒ह्राम् । मे॒ । पञ्च॑ । प्र॒ऽदिश॑: । दु॒ह्राम् । उ॒र्वी: । य॒था॒ऽब॒लम् । प्र । आ॒पे॒य॒म् । सर्वा॑: । आऽकू॑ती: । मन॑सा । हृद॑येन । च॒ ॥२०.९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुह्रां मे पञ्च प्रदिशो दुह्रामुर्वीर्यथाबलम्। प्रापेयं सर्वा आकूतीर्मनसा हृदयेन च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुह्राम् । मे । पञ्च । प्रऽदिश: । दुह्राम् । उर्वी: । यथाऽबलम् । प्र । आपेयम् । सर्वा: । आऽकूती: । मनसा । हृदयेन । च ॥२०.९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 20; मन्त्र » 9

    पदार्थ -
    (पञ्च) फैली हुई [वा पाँच] (प्रदिशः) उत्तम दान क्रियायें [वा प्रधान दिशायें] (मे) मेरे लिये (उर्वीः) फैली हुई शक्तियों को (यथाबलम्) यथाशक्ति (दुह्राम्) भरती रहें, (दुह्राम्) भरती रहें। (मनसा) मन [मनन शक्ति] से (च) और (हृदयेन) हृदय [ग्रहण शक्ति] से (सर्वाः) सब (आकूतीः) संकल्पों को (प्र, आपेयम्) मैं पाता रहूँ ॥९॥

    भावार्थ - मनुष्य विद्या आदि के दान से अपना सामर्थ्य बढ़ावें और सब दिशाओं से उत्तम गुण प्राप्त करें तथा श्रवण, मनन और निदिध्यासन [ध्यान देकर विचार] से अपने मनोरथ सिद्ध करें ॥९॥

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