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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
    सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यः सह॑मान॒श्चर॑सि सासहा॒न इ॑व ऋष॒भः। तेना॑श्वत्थ॒ त्वया॑ व॒यं स॒पत्ना॑न्त्सहिषीमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । सह॑मान: । चर॑सि । स॒स॒हा॒न:ऽइ॑व । ऋ॒ष॒भ: । तेन॑ । अ॒श्व॒त्थ॒ । त्वया॑ । व॒यम् । स॒ऽपत्ना॑न् । स॒हि॒षी॒म॒हि॒ ॥६.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सहमानश्चरसि सासहान इव ऋषभः। तेनाश्वत्थ त्वया वयं सपत्नान्त्सहिषीमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सहमान: । चरसि । ससहान:ऽइव । ऋषभ: । तेन । अश्वत्थ । त्वया । वयम् । सऽपत्नान् । सहिषीमहि ॥६.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (अश्वत्थ) हे शूरों में ठहरनेवाले राजन् ! [वा पीपलवृक्ष] ! (यः) जो तू (सहमानः) [वैरियों को] दबाता हुआ, (सासहानः) महाबली (ऋषभः इव) श्रेष्ठ पुरुष वा बलीवर्द वा ऋषभ औषध के समान (चरसि) विचरता है। (तेन त्वया) उस तेरे साथ (वयम्) हम (सपत्नान्) वैरियों को (सहिषीमहि) हरा देवें ॥४॥

    भावार्थ - प्रजागण शूरवीर नीतिनिपुण राजा और सद्वैद्य के सहाय से शत्रुओं को वश में करते रहें। ऋषभ औषध विशेष है। इसको शब्दकल्पद्रुम कोष में मीठा, शीतल, रक्त-पित्त विरेक नाशक, वीर्य-श्लेष्मकारी और दाहक्षय ज्वरहारी आदि लिखा है ॥४॥

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