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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 8
    सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    प्रैणा॑न्नुदे॒ मन॑सा॒ प्र चि॒त्तेनो॒त ब्रह्म॑णा। प्रैणा॑न्वृ॒क्षस्य॒ शाख॑याश्व॒त्थस्य॑ नुदामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ए॒ना॒न् । नु॒दे॒ । मन॑सा । प्र । चि॒त्तेन॑ । उ॒त । ब्रह्म॑णा । प्र । ए॒ना॒न् । वृ॒क्षस्‍य॑ । शाख॑या । अ॒श्व॒त्थस्य॑ । नु॒दा॒म॒हे॒ ॥६.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रैणान्नुदे मनसा प्र चित्तेनोत ब्रह्मणा। प्रैणान्वृक्षस्य शाखयाश्वत्थस्य नुदामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । एनान् । नुदे । मनसा । प्र । चित्तेन । उत । ब्रह्मणा । प्र । एनान् । वृक्षस्‍य । शाखया । अश्वत्थस्य । नुदामहे ॥६.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (एनान्) इन [शत्रुओं] को (मनसा) मननशक्ति से, (चित्तेन) ज्ञानशक्ति से (उत) और (ब्रह्मणा) वेदशक्ति से (प्र प्र) सर्वथा (नुदे) मैं हटाता हूँ। (एनान्) इनको (वृक्षस्य) स्वीकार करने योग्य (अश्वत्थस्य) बलवानों में ठहरनेवाले शूर [वा पीपल] की (शाखया) व्याप्ति [वा शाखा] से (प्र, नुदामहे) हम निकाले देते हैं ॥८॥

    भावार्थ - प्रत्येक व्यक्ति और सब लोग मिलकर शूरवीर वा पीपल के प्रभाव से आगा-पीछा विचारकर शत्रुओं को नष्ट कर देते हैं ॥८॥

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