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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 7

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 2
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - हरिणः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त

    अनु॑ त्वा हरि॒णो वृषा॑ प॒द्भिश्च॒तुर्भि॑रक्रमीत्। विषा॑णे॒ वि ष्य॑ गुष्पि॒तं यद॑स्य क्षेत्रि॒यं हृ॒दि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अनु॑ । त्वा॒ । ह॒रि॒ण: । वृषा॑ । प॒त्ऽभि: । च॒तु:ऽभि॑: । अ॒क्र॒मी॒त् । विऽसा॑ने । वि । स्य॒ । गु॒ष्पि॒तम् । यत् । अ॒स्य॒ । क्षे॒त्रि॒यम् । हृ॒दि ॥७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अनु त्वा हरिणो वृषा पद्भिश्चतुर्भिरक्रमीत्। विषाणे वि ष्य गुष्पितं यदस्य क्षेत्रियं हृदि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अनु । त्वा । हरिण: । वृषा । पत्ऽभि: । चतु:ऽभि: । अक्रमीत् । विऽसाने । वि । स्य । गुष्पितम् । यत् । अस्य । क्षेत्रियम् । हृदि ॥७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (वृषा) परम ऐश्वर्यवाला (हरिणः) विष्णु भगवान् (चतुर्भिः) माँगने योग्य [अथवा चार, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष] (पद्भिः) पदार्थों के साथ (त्वा अनु) तेरे साथ-२ (अक्रमीत्) पद जमाकर आगे बढ़ा है। (विषाणे) [परमेश्वर के] विविध दान में [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य) इसके (हृदि) हृदय में (गुष्पितम्=गुफितम्) गुँथा हुआ है ॥२॥ दूसरा अर्थ−[हे मनुष्य !] (वृषा) बलवान् (हरिणः) हरिण (चतुर्भिः पद्भिः) चारों पैरों से (त्वा अनु) तेरे अनुकूल (अक्रमीत्) प्राप्त हुआ है। (विषाणे) हे सींग ! [उस रोग को] (विष्य) नाश कर दे (यत्) जो (क्षेत्रियम्) शरीर वा वंश का रोग (अस्य हृदि) इसके हृदय में (गुष्पितम्) गुंथा हुआ है ॥२॥

    भावार्थ - परमेश्वर अनेक उत्तम-२ पदार्थ देकर सदा सहायक रहता है। उसकी अनन्त दया से औषधि द्वारा नीरोग रहकर अपना सामर्थ्य बढ़ावें ॥२॥ दूसरा अर्थ−मनुष्य हरिण के सींग आदि औषधि से रोगनिवृत्ति करें ॥२॥

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