अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 7/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - आपः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - यक्ष्मनाशन सूक्त
आप॒ इद्वा उ॑ भेष॒जीरापो॑ अमीव॒चात॑नीः। आपो॒ विश्व॑स्य भेष॒जीस्तास्त्वा॑ मुञ्चन्तु क्षेत्रि॒यात् ॥
स्वर सहित पद पाठआप॑: । इत् । वै । ऊं॒ इति॑ । भे॒ष॒जी: । आप॑: । अ॒मी॒व॒ऽचात॑नी: । आप॑: । विश्व॑स्य । भे॒ष॒जी: । ता: । त्वा॒ । मु॒ञ्च॒न्तु॒ । क्षे॒त्रि॒यात् ॥७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
आप इद्वा उ भेषजीरापो अमीवचातनीः। आपो विश्वस्य भेषजीस्तास्त्वा मुञ्चन्तु क्षेत्रियात् ॥
स्वर रहित पद पाठआप: । इत् । वै । ऊं इति । भेषजी: । आप: । अमीवऽचातनी: । आप: । विश्वस्य । भेषजी: । ता: । त्वा । मुञ्चन्तु । क्षेत्रियात् ॥७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 7; मन्त्र » 5
विषय - रोग नाश करने के लिए उपदेश।
पदार्थ -
(आपः) सर्वव्यापक परमेश्वर वा जल (इत् वै उ) अवश्य ही (भेषजीः=०−ज्यः) भयनिवारक है, (आपः) परमेश्वर, वा जल (अमीवचातनीः=०−न्यः) पीड़ानाशक है। (आपः) परमेश्वर वा जल (विश्वस्य) सबका (भेषजीः) भयनिवारक है, (ताः) वह (त्वा) तुझको (क्षेत्रियात्) शरीर वा वंश के दोष वा रोग से (मुञ्चन्तु) छुड़ावे ॥५॥
भावार्थ - परमेश्वर ने मनुष्य को बुद्धि, नेत्र, हस्तादि, सूर्य, चन्द्र, पृथिवी आदि और अन्नादि पदार्थ देकर बड़ा उपकार किया है, सो हम भी उसको धन्यवाद देते हुए सबके साथ उपकार करें और खेती आदि में जल के सुप्रयोग से पुरानी और नवी दरिद्रता और स्नान आदि में प्रयोगों से सब रोग नाश करें ॥५॥ ‘आपः’ शब्द नित्य स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त है, इसी से उसके विशेषण भी स्त्रीलिङ्ग बहुवचनान्त हैं। ‘आपः’ शब्द परमेश्वरवाची भी है, प्रमाण में अगला मन्त्र है। उसमें एकवचनान्त शब्दों के साथ प्रयोग से उसका अर्थ एक परमेश्वर का है ॥ तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमा॑। तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्र॒ह्म ता आपः॒ स प्र॒जापतिः ॥ (तत्) विस्तार करनेवाला प्रसिद्ध ब्रह्म (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (आदित्यः) प्रकाशस्वरूप, (तत्) ब्रह्म ही (वायुः) गतिशील बलवान् और (तत् उ) ब्रह्म ही (चन्द्रमाः) आनन्दकारक है। (तत् एव) ब्रह्म ही (शुक्रम्) शुक्ल वा शुद्धस्वभाव, (तत्) सब में विस्तृत ब्रह्म (ब्रह्म) महान् (ताः) वही (आपः) सर्वव्यापक और (सः) वही (प्रजापतिः) प्रजापालक है ॥ तनोति विस्तारयतीति तद् ब्रह्म। तनु विस्तारे अदिः, स च डित् (उ० १।१३२) ॥
टिप्पणी -
५−(आपः)। अ० १।४।३। सर्वव्यापकः परमेश्वरः। जलानि। (इत्, वै, उ)। इति सर्वेऽवधारणे। अत्यन्तनिश्चयेन। (भेषजीः)। भेषं भयं जयतीति भेषजम्। भेष+जि-उ। केवलमामकभागधेय०। पा० ४।१।३०। इति भेषज, ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति जसि पूर्वसवर्णदीर्घः। भेषज्यः। भयनिवारिकाः। (अमीवचातनीः)। अ० १।२८।१। रोगाणां नाशयित्र्यः। पीडानाशिकाः। (विश्वस्य)। सर्वस्य। (त्वा)। त्वां मनुष्यम्। (मुञ्चन्तु)। मोचयन्तु। वियोजयन्तु, इत्यर्थः। (क्षेत्रियात्)। महारोगात् ॥