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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 24

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 24/ मन्त्र 3
    सूक्त - मृगारः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    यश्च॑र्षणि॒प्रो वृ॑ष॒भः स्व॒र्विद्यस्मै॒ ग्रावा॑णः प्र॒वद॑न्ति नृ॒म्णम्। यस्या॑ध्व॒रः स॒प्तहो॑ता॒ मदि॑ष्ठः॒ स नो॑ मुञ्च॒त्वंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । च॒र्ष॒णि॒ऽप्र: । वृ॒ष॒भ: । स्व॒:ऽवित् । यस्मै॑ । ग्रावा॑ण: । प्र॒ऽवद॑न्ति । नृ॒म्णम् । यस्य॑ । अ॒ध्व॒र: । स॒प्तऽहो॑ता । मदि॑ष्ठ: । स: । न॒: । मु॒ञ्च॒तु॒ । अंह॑स: ॥२४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यश्चर्षणिप्रो वृषभः स्वर्विद्यस्मै ग्रावाणः प्रवदन्ति नृम्णम्। यस्याध्वरः सप्तहोता मदिष्ठः स नो मुञ्चत्वंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । चर्षणिऽप्र: । वृषभ: । स्व:ऽवित् । यस्मै । ग्रावाण: । प्रऽवदन्ति । नृम्णम् । यस्य । अध्वर: । सप्तऽहोता । मदिष्ठ: । स: । न: । मुञ्चतु । अंहस: ॥२४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 24; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यः) जो परमेश्वर (चर्षणिप्रः) उद्योगी पुरुषों का मनोरथ पूरा करनेवाला, (वृषभः) सुख की वर्षा करनेवाला, श्रेष्ठ और (स्वर्वित्) स्वर्ग अर्थात् मोक्ष प्राप्त कराने हारा है और (यस्मै) जिसके [आज्ञापालन के] लिये (ग्रावाणः) शास्त्रवेत्ता पण्डित जन (नृम्णम्) बल वा धन (प्रवदन्ति) बताते हैं। (यस्य) जिसका (अध्वरः) सन्मार्गदर्शक वा हिंसारहित व्यवहार (सप्तहोता) सातहोताओं से [अर्थात् विषयों के ग्रहण करने और देनेवाले त्वचा, नेत्र, कान, जिह्वा, नाक, मन, और बुद्धि से] साक्षात् किया हुआ (मदिष्ठः) अतिशय आनन्ददायक है, (सः) वह (नः) हमें (अहंसः) कष्ट से (मुञ्चतु) छुड़ावे ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर के अनन्त सुखदायक गुणों को साक्षात् करके पुरुषार्थपूर्वक कष्टों को नाश करके आनन्द प्राप्त करें ॥३॥ यहाँ पर [सप्त प्राणान्] अ० २।१२।७। और [सप्त ऋषयः] अ० ४।११।९। इन पदों की भी व्याख्या देखो ॥

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