Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 28

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 28/ मन्त्र 7
    सूक्त - मृगारोऽअथर्वा वा देवता - भवाशर्वौ रुद्रो वा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - पापमोचन सूक्त

    अधि॑ नो ब्रूतं॒ पृत॑नासूग्रौ॒ सं वज्रे॑ण सृजतं॒ यः कि॑मी॒दी। स्तौमि॑ भवाश॒र्वौ ना॑थि॒तो जो॑हवीमि॒ तौ नो॑ मुञ्चत॒मंह॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । न॒: । ब्रू॒त॒म् । पृत॑नासु । उ॒ग्रौ॒ । सम् । वज्रे॑ण । सृ॒ज॒त॒म् । य: । कि॒मी॒दी । स्तौमि॑ । भ॒वा॒श॒र्वौ । ना॒थि॒त: । जो॒ह॒वी॒मि॒ । तौ । न॒: । मु॒ञ्च॒त॒म् । अंह॑स: ॥२८.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि नो ब्रूतं पृतनासूग्रौ सं वज्रेण सृजतं यः किमीदी। स्तौमि भवाशर्वौ नाथितो जोहवीमि तौ नो मुञ्चतमंहसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि । न: । ब्रूतम् । पृतनासु । उग्रौ । सम् । वज्रेण । सृजतम् । य: । किमीदी । स्तौमि । भवाशर्वौ । नाथित: । जोहवीमि । तौ । न: । मुञ्चतम् । अंहस: ॥२८.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 28; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    (उग्रौ) हे उग्र स्वभाववाले तुम दोनों (नः) हम से (पृतनासु) संग्रामों में (अधि) अनुग्रह से (ब्रूतम्) बोलो और [उसको] (वज्रेण) वज्र के साथ (सम् सृजतम्) संयुक्त करो (यः) जो (किमीदी) अब क्या हो रहा है, यह क्या हो रहा है, ऐसा खोजनेवाला लुतरा पुरुष है। (नाथितः) मैं अधीन होकर (भवाशर्वौ) सुख उत्पन्न करनेवाले और शत्रुनाश करनेवाले तुम दोनों को (स्तौमि) सराहता हूँ और (जोहवीमि) बारंबार पुकारता हूँ। (तौ) वे तुम दोनों (नः) हमें (अंहसः) कष्ट से (मुञ्चतम्) छुड़ावो ॥७॥

    भावार्थ - मनुष्य सदाचारी और सत्यवादी होकर शत्रुओं को संग्राम में जीतें और परमेश्वर की उपासना करके सदा प्रसन्न रहें ॥७॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top