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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 37

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 37/ मन्त्र 8
    सूक्त - बादरायणिः देवता - अजशृङ्ग्योषधिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - कृमिनाशक सूक्त

    भी॒मा इन्द्र॑स्य हे॒तयः॑ श॒तं ऋ॒ष्टीर॑य॒स्मयीः॑। ताभि॑र्हविर॒दान्ग॑न्ध॒र्वान॑वका॒दान्व्यृ॑षतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भी॒मा: । इन्द्र॑स्य । हे॒तय॑: । श॒तम् । ऋ॒ष्टी: । अ॒य॒स्मयी॑: । ताभि॑: । ह॒वि॒:ऽअ॒दान् । ग॒न्ध॒र्वान् । अ॒व॒का॒ऽअ॒दान् । वि । ऋ॒ष॒तु॒ ॥३७.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भीमा इन्द्रस्य हेतयः शतं ऋष्टीरयस्मयीः। ताभिर्हविरदान्गन्धर्वानवकादान्व्यृषतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भीमा: । इन्द्रस्य । हेतय: । शतम् । ऋष्टी: । अयस्मयी: । ताभि: । हवि:ऽअदान् । गन्धर्वान् । अवकाऽअदान् । वि । ऋषतु ॥३७.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 37; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (इन्द्रस्य) परमेश्वर की (शतम्) सौ (हेतयः) हनन शक्तियाँ (अयस्मयीः) लोह की बनी हुई (ऋष्टीः) खड्गों के समान (भीमाः) भयानक हैं। (ताभिः) उनके साथ [दुष्ट दमन के लिये] (हविरदान्) ग्राह्य अन्न के भोजन करनेवाले (अवकादान्) हिंसाओं के नाश करनेवाले, (गन्धर्वान्) वेदवाणी और पृथिवी के धारण करनेवाले पुरुषों को [वह परमेश्वर] (वि ऋषतु) व्याप्त होवे ॥८॥

    भावार्थ - परमेश्वर दुराचारियों को अनेक प्रकार से दण्ड देकर सत्पुरुषों की रक्षा करता है ॥८॥

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