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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 5

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 5/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - वृषभः, स्वापनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - स्वापन सूक्त

    स॒हस्र॑शृङ्गो वृष॒भो यः स॑मु॒द्रादु॒दाच॑रत्। तेना॑ सह॒स्ये॑ना व॒यं नि जना॑न्त्स्वापयामसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्र॑ऽशृङ्ग: । वृ॒ष॒भ: । य: । स॒मु॒द्रात् । उ॒त्ऽआच॑रत् । तेन॑ । स॒ह॒स्ये᳡न । व॒यम् । नि । जना॑न् । स्वा॒प॒या॒म॒सि॒ ॥५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रशृङ्गो वृषभो यः समुद्रादुदाचरत्। तेना सहस्येना वयं नि जनान्त्स्वापयामसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रऽशृङ्ग: । वृषभ: । य: । समुद्रात् । उत्ऽआचरत् । तेन । सहस्येन । वयम् । नि । जनान् । स्वापयामसि ॥५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 5; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (यः) जो (वृषभः) सुख बरसानेवाला (सहस्रशृङ्गः) सहस्रों तेज अर्थात् नक्षत्रोंवाला चन्द्रमा [अथवा सहस्रों किरणोंवाला सूर्य] (समुद्रात्) आकाश से (उदाचरत्) उदय हुआ है, (तेन) उस (सहस्येन) बल के लिये हितकारक [चन्द्रमा] से (वयम्) हम लोग (जनान्) सब जनों को (नि स्वापयामसि) सुलादें ॥१॥

    भावार्थ - माता पिता आदि बच्चों को चन्द्रमा के दर्शन कराते हुए सुलावें, जिससे उनके शरीर की पुष्टि और नेत्रोंकी ज्योति बढ़े [(सहस्रशृङ्गः) का अर्थ सूर्य भी है, अर्थात् सूर्य का प्रकाश आने से यह घर स्वास्थ्यकारक है। हम सब सोवें] ॥१॥ इस सूक्त के चार मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद म० ७। सू० ५५ के हैं, जिनका इन्द्र देवता है, इससे यहाँ भी सूक्त का इन्द्र ही देवता है। यह मन्त्र उक्त सूक्त का मन्त्र ७ है ॥

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