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अथर्ववेद > काण्ड 4 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 6/ मन्त्र 2
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - द्यावापृथिवी, सप्तसिन्धुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - विषघ्न सूक्त

    याव॑ती॒ द्यावा॑पृथि॒वी व॑रि॒म्णा याव॑त्स॒प्त सिन्ध॑वो वितष्ठि॒रे। वाचं॑ वि॒षस्य॒ दूष॑णीं॒ तामि॒तो निर॑वादिषम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याव॑ती॒ । इति॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । व॒रि॒म्णा । याव॑त् । स॒प्त । सिन्ध॑व: । वि॒ऽत॒स्थि॒रे । वाच॑म् । वि॒षस्य॑ । दूष॑णीम् । ताम् । इ॒त: । नि:। अ॒वा॒दि॒ष॒म् ॥६.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यावती द्यावापृथिवी वरिम्णा यावत्सप्त सिन्धवो वितष्ठिरे। वाचं विषस्य दूषणीं तामितो निरवादिषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यावती । इति । द्यावापृथिवी इति । वरिम्णा । यावत् । सप्त । सिन्धव: । विऽतस्थिरे । वाचम् । विषस्य । दूषणीम् । ताम् । इत: । नि:। अवादिषम् ॥६.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 6; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (द्यावापृथिवी=०-व्यौ) सूर्य और पृथिवीलोक (वरिम्णा) अपने विस्तार से (यावती=०-त्यौ) जितने हैं, और (सप्त) जीव से मिली हुई वा गमनशील, वा सात (सिन्धवः) बहनेवाली नदी रूप इन्द्रियाँ [दो कान, दो नथने, दो आँखे और एक मुख] (यावत्) जितने (वितष्ठिरे) फैलकर स्थित हैं। (इतः) इस स्थान से (विषस्य) विष की (दूषणीम्) खण्डन करनेवाली (ताम्) उस (वाचम्) वाणी को (निरवादिषम्) मैंने कह दिया है ॥२॥

    भावार्थ - मनुष्य उपाय करें कि आकाश और पृथिवी के सब गोचर पदार्थों में विष का संसर्ग न हो और पुष्टिकारक और बलवर्धक वस्तुओं के स्पर्श, दर्शन, श्रवण, मनन, संभोग आदि से आनन्द प्राप्त हो ॥२॥

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