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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 12

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 12/ मन्त्र 5
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जातवेदा अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ऋतयज्ञ सूक्त

    व्यच॑स्वतीरुर्वि॒या वि श्र॑यन्तां॒ पति॑भ्यो॒ न जन॑यः॒ शुम्भ॑मानाः। देवी॑र्द्वारो बृह॒तीर्वि॑श्वमिन्वा दे॒वेभ्यो॑ भवत सुप्राय॒णाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व्यच॑स्वती: । उ॒र्वि॒या । वि । श्र॒य॒न्ता॒म् । पति॑ऽभ्य: । न । जन॑य: । शुम्भ॑माना: । देवी॑: । द्वा॒र॒: । बृ॒ह॒ती॒: । वि॒श्व॒म्ऽइ॒न्वा॒: । दे॒वेभ्य॑: । भ॒व॒त॒ । सु॒ऽप्रा॒य॒ना: ॥१२.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    व्यचस्वतीरुर्विया वि श्रयन्तां पतिभ्यो न जनयः शुम्भमानाः। देवीर्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा देवेभ्यो भवत सुप्रायणाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    व्यचस्वती: । उर्विया । वि । श्रयन्ताम् । पतिऽभ्य: । न । जनय: । शुम्भमाना: । देवी: । द्वार: । बृहती: । विश्वम्ऽइन्वा: । देवेभ्य: । भवत । सुऽप्रायना: ॥१२.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 12; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    (व्यचस्वतीः) व्याप्तिवाली प्रजायें (उर्व्या) विस्तीर्ण कर्म को (वि) विशेष करके (श्रयन्ताम्) सेवन करें, (न) जैसे (शुम्भमानाः) शोभायमान (जनयः) स्त्रियाँ (पतिभ्यः) अपने पतियों के लिये। (देवीः) प्रकाशमान (बृहतीः) बड़ी (विश्वमिन्वाः) सब व्यवहार में व्याप्ति रखनेवाली प्रजाओ ! तुम (देवेभ्यः) उत्तम गुणों के लिये (सुप्रायणाः) बड़े उत्तम घरवाले (द्वारः) द्वारों के समान (भवत) हो जावो ॥५॥

    भावार्थ - जैस गुणवती स्त्रियाँ अपने-२ पतियों का हित करती रहती हैं, और जैसे अच्छे घरवाले द्वारों से आना-जाना सुगम होता है, इसी प्रकार सब स्त्री-पुरुष उत्तम गुण ग्रहण करें और संसार में फैलावें ॥५॥

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