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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 13

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 13/ मन्त्र 8
    सूक्त - गरुत्मान् देवता - तक्षकः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त

    उ॑रु॒गूला॑या दुहि॒ता जा॒ता दा॒स्यसि॑क्न्या। प्र॒तङ्कं॑ द॒द्रुषी॑णां॒ सर्वा॑सामर॒सं वि॒षम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒रु॒ऽगूला॑या: । दु॒हि॒ता । जा॒ता । दा॒सी । असि॑क्न्या । प्र॒ऽतङ्क॑म् । द॒द्रुषी॑णाम् । सर्वा॑साम् । अ॒र॒सम् । वि॒षम् ॥१३.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उरुगूलाया दुहिता जाता दास्यसिक्न्या। प्रतङ्कं दद्रुषीणां सर्वासामरसं विषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उरुऽगूलाया: । दुहिता । जाता । दासी । असिक्न्या । प्रऽतङ्कम् । दद्रुषीणाम् । सर्वासाम् । अरसम् । विषम् ॥१३.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 13; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (उरुगूलायाः) बहुत डसनेवाली [साँपिनी] की (दुहिता) पुत्री, (असिक्न्या) उस काली [नागिनी] से (जाता) उत्पन्न हुई (दासी) डसनेवाली [साँपिनी] है। (सर्वासाम्) सब (दद्रुषीणाम्) दद्रु अर्थात् दुर्गति वा खुजली देनेवाली [साँपिनों] (प्रतङ्कम्) जीवन को कष्ट देनेवाला (विषम्) विष (अरसम्) निर्बल है ॥८॥

    भावार्थ - जैसे सद्वैद्य की ओषधि से सर्प आदि का विष निष्फल होता है, वैसे ही मनुष्य सद्ज्ञान से कुवासनाओं की कुचालें मिटावें ॥८॥

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