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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 18

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 18/ मन्त्र 12
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    एक॑शतं॒ ता ज॒नता॒ या भूमि॒र्व्य॑धूनुत। प्र॒जां हिं॑सि॒त्वा ब्राह्म॑णीमसंभ॒व्यं परा॑भवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽशतम् । ता: । ज॒नता॑: । या: । भूमि॑: । विऽअ॑धूनुत । प्र॒ऽजाम् । हिं॒सि॒त्वा । ब्राह्म॑णीम् । अ॒स॒म्ऽभ॒व्यम् ।परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकशतं ता जनता या भूमिर्व्यधूनुत। प्रजां हिंसित्वा ब्राह्मणीमसंभव्यं पराभवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽशतम् । ता: । जनता: । या: । भूमि: । विऽअधूनुत । प्रऽजाम् । हिंसित्वा । ब्राह्मणीम् । असम्ऽभव्यम् ।परा । अभवन् ॥१८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (ताः) वे (जनताः) लोग (एकशतम्) एक सौ एक [थे] (याः) जिन को (भूमिः) भूमि ने (व्यधूनुत) हिला दिया है और जो (ब्राह्मणीम्) ब्राह्मणसंबन्धिनी (प्रजाम्) प्रजा को (हिंसित्वा) सता कर (असंभव्यम्) संभावना [शक्यता] के विना (पराभवन्) हार गये हैं ॥१२॥

    भावार्थ - बहुत से मनुष्य इस पृथिवी पर वेदज्ञानियों को सताने से निःसन्देह नष्ट हो गये हैं ॥१२॥

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