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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 12
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    57

    एक॑शतं॒ ता ज॒नता॒ या भूमि॒र्व्य॑धूनुत। प्र॒जां हिं॑सि॒त्वा ब्राह्म॑णीमसंभ॒व्यं परा॑भवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽशतम् । ता: । ज॒नता॑: । या: । भूमि॑: । विऽअ॑धूनुत । प्र॒ऽजाम् । हिं॒सि॒त्वा । ब्राह्म॑णीम् । अ॒स॒म्ऽभ॒व्यम् ।परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१८.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकशतं ता जनता या भूमिर्व्यधूनुत। प्रजां हिंसित्वा ब्राह्मणीमसंभव्यं पराभवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽशतम् । ता: । जनता: । या: । भूमि: । विऽअधूनुत । प्रऽजाम् । हिंसित्वा । ब्राह्मणीम् । असम्ऽभव्यम् ।परा । अभवन् ॥१८.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 12
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ताः) वे (जनताः) लोग (एकशतम्) एक सौ एक [थे] (याः) जिन को (भूमिः) भूमि ने (व्यधूनुत) हिला दिया है और जो (ब्राह्मणीम्) ब्राह्मणसंबन्धिनी (प्रजाम्) प्रजा को (हिंसित्वा) सता कर (असंभव्यम्) संभावना [शक्यता] के विना (पराभवन्) हार गये हैं ॥१२॥

    भावार्थ

    बहुत से मनुष्य इस पृथिवी पर वेदज्ञानियों को सताने से निःसन्देह नष्ट हो गये हैं ॥१२॥

    टिप्पणी

    १२−(एकशतम्) एकाधिकं शतम् असंख्याताः (ताः) (जनताः) समूहार्थे−तल्। जनसमूहाः (याः) (भूमिः) पृथिवी (व्यधूनुत) धूञ् कम्पने−लङ्। विशेषेणाकम्पयत (प्रजाम्) जनताम् (हिंसित्वा) दुःखयित्वा (ब्राह्मणीम्) ब्रह्मन्−अण्, ङीप्। ब्राह्मणसम्बन्धिनीम् (असंभव्यम्) अ+सम्+भू−यत्। यथा तथा सम्भावनां शक्यतां विना। अवश्यम् (पराभवन्) पराजयं गताः ॥

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    विषय

    ब्राह्मणी प्रजा के हिंसन का परिणाम

    पदार्थ

    १. (ताः जनता:) = वे लोग (एकशतम) = एक सौ एक थे-सैकड़ों थे (याः भूमिः व्यधूनुत)-जिन्हें भूमि ने कम्पित कर दिया। (ब्राह्मणीम्) = ज्ञानी पुरुष के पीछे चलनेवाली (प्रजा हिंसित्वा) = प्रजा को नष्ट करके ये प्रजापीड़क राजा (असंभव्यं पराभवम्) = बिना सम्भावना के ही परास्त हो गये। २. जब राजा प्रजा पर अत्याचार करने लगता है तब प्रजा किसी ज्ञानी की शरण में जाती है और वस्तुत: उस ज्ञानी की ही हो जाती है। इस प्रजा पर राजा खूब अत्याचार करता है, परन्तु अन्त में न जाने कैसे, उस प्रभु की व्यवस्था से वह नष्ट हो जाता है। कल्पना भी नहीं होती कि यह विनष्ट हो जाएगा, परन्तु वह ऐसे नष्ट हो जाता है, जैसे भूकम्प से एक महल नष्ट हो जाता है। कितने ही ऐसे अत्याचारियों को पृथिवी ने अन्ततः कम्पित कर दिया।

    भावार्थ

    ब्राह्मणी प्रजा पर अत्याचार करके राजा कल्पनातीत ढंग से विनष्ट हो जाता है।

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    भाषार्थ

    (ताः) वे (एकशतम्) एक-सौ-एक या एक-सौ (जनता:) जनताएँ थीं, (याः) जिन्हें (भूमि:) भूमि ने ( व्यधूनुत) कॅपा दिया। (प्रजाम्, हिंसित्वा ब्राह्मणीम् ) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ प्रजा की हिंसा करके वे ( असम्भव्यम्) असम्भवनीय (पराभवन्) पराजय को प्राप्त हुए।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मणी प्रजा है ब्रह्मज्ञों और वेदज्ञों का समूह। एकशतम् =वैदिक दृष्टि में मनुष्य की आयु १०१ वर्षों की है। एक वर्ष माता के उदर में और १०० वर्ष जन्म लेने के पश्चात्। इस दृष्टि से जनताओं को भी सम्भवतः १०१ कहा१ हो। अथवा 'एक सौ' यथा 'दशशताः' ( मंत्र १० ); इस अर्थ में गर्भस्थ वर्ष नहीं गिना। ब्रह्मज्ञों और वेदज्ञों के अभाव में उनकी परामर्श वाणी के न मिलने से भूमि जनताओं के राजाओं को पराभूत कर देती है।] [१. वस्तुतः एकशतम् =एक सौ, यथा दशशताः दससौ (मंत्र १०)। इस प्रकार दोनों पदों के अर्थों में अनुरूपता हो जाती है।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    ब्राह्मण की गौ का स्वरूप बतलाते हैं—(ताः जनताः) वे लोग राष्ट्र के कलङ्करूप (एक-शतं) एक सौ एक हैं (याः) जिन को (भूमिः) माता भूमि उन्हें (वि अधुनत) स्वयं नाना प्रकार से धुन देती है, कंपा देती है। जो (ब्राह्मणीम्) विद्वान् ब्राह्मणों की (प्रजां) प्रजा, सन्तति को (हिंसित्वा) मार कर (असम्-भव्यम्) आशातीत रूप से, विना सम्भावना के ही (परा-भवन्) विनाश को प्राप्त होते हैं।

    टिप्पणी

    केसरप्राबन्धा = के मोक्षसुखे, प्रजापतौ ब्रह्मणि सरः गमनं, तत्र प्राबन्धः प्रकृष्ट आग्रहो यस्याः सा केसरप्राबन्धा मोक्षाभिलाषिणी चितिशक्तिः। तस्या या चरमा अन्तिमा व्यापिनी वा अजा न जायते इत्यजा, अमृता उत्पादविनाशरहिता या आत्मशक्तिः, तामपि ते वैतहन्याः ‘अपेचिरन्’ विषयाम अपाचयन्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    Full hundred and one were those whom the earth had shaken with all their power and potential. For, having suppressed the people and thus having violated the sanctity of Brahma’s Cow, they too fell defeated beyond all possible hope of recovery.

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    Translation

    Hundred and one were the folk, whom the earth shook off. Having violated their intellectual subjects, they were defeated inconceivably.

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    Translation

    These people who make the region of dominion tremble, be one hundred even more than that, face the fate of destruction unexpectedly inflicting injury to persons of Brahmana varna.

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    Translation

    One and a hundred stains of the state are the persons, whom the Mother Earth shakes off from her. They, harming the progeny of the Brahman, perish in conceivably.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १२−(एकशतम्) एकाधिकं शतम् असंख्याताः (ताः) (जनताः) समूहार्थे−तल्। जनसमूहाः (याः) (भूमिः) पृथिवी (व्यधूनुत) धूञ् कम्पने−लङ्। विशेषेणाकम्पयत (प्रजाम्) जनताम् (हिंसित्वा) दुःखयित्वा (ब्राह्मणीम्) ब्रह्मन्−अण्, ङीप्। ब्राह्मणसम्बन्धिनीम् (असंभव्यम्) अ+सम्+भू−यत्। यथा तथा सम्भावनां शक्यतां विना। अवश्यम् (पराभवन्) पराजयं गताः ॥

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