Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 15
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    59

    इषु॑रिव दि॒ग्धा नृ॑पते पृदा॒कूरि॑व गोपते। सा ब्रा॑ह्म॒णस्येषु॑र्घो॒रा तया॑ विध्यति॒ पीय॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इषु॑:ऽइव । दि॒ग्धा । नृ॒ऽप॒ते॒ । पृ॒दा॒कू:ऽइ॑व । गो॒ऽप॒ते॒ । सा । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । इषु॑: । घो॒रा । तया॑ । वि॒ध्य॒ति॒ । पीय॑त: ॥१८.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषुरिव दिग्धा नृपते पृदाकूरिव गोपते। सा ब्राह्मणस्येषुर्घोरा तया विध्यति पीयतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषु:ऽइव । दिग्धा । नृऽपते । पृदाकू:ऽइव । गोऽपते । सा । ब्राह्मणस्य । इषु: । घोरा । तया । विध्यति । पीयत: ॥१८.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (नृपते) हे नरपालक ! (गोपते) हे भूमिपालक ! (दिग्धा) विष में भरे (इषुः इव) बाण के समान और (पृदाकूः इव) फुँफकारती हुई साँपिनी के समान (सा) वह (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (घोर) भयानक (इषुः) बरछी है, (तया) उस से (पीयतः) सतानेवालों को (विध्यति) वह छेदता है ॥१५॥

    भावार्थ

    नीतिकुशल राजा के राज्य में वेदवेत्ता लोग विद्या के प्रभाव से शत्रुओं को नाश करते हैं ॥१५॥

    टिप्पणी

    १५−(इषुः) बाणः (इव) यथा (दिग्धा) विषासक्ता (नृपते) हे नरपालक (पृदाकूः) कुत्सितशब्द-कारिणी सर्पिणी (इव) (गोपते) हे भूरक्षक (सा) पूर्वोक्ता गौर्वाणी (ब्राह्मणस्य) वेदवेत्तुः (इषुः) हननशक्तिः। अस्त्रभेदः (घोरा) कराला (तया) इष्वा (विध्यति) छिनत्ति (पीयतः) पीय हिंसायाम्−शतृ। हिंसाशीलान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नृपते-गोपते

    पदार्थ

    १. हे (नृपते) = मनुष्यों के पालक राजन् ! (दिग्धा इषः इव) = उपर्युक्त ब्राह्मण-वाणी विषबुझे तीर का काम करती है, अत्याचारी को विषबुझे तौर के समान समाप्त कर देती है। हे (गोपते) = ज्ञान की वाणियों के रक्षक राजन् ! (पृदाकू: इव) = ब्राह्मण-वाणी सर्पिणी की भाँति है। यह अत्याचारी को डसकर समाप्त कर देती है। २. (सा) = वह (ब्राह्मणस्य घोरा इषु:) = ब्राह्मण की वाणी ही घोर इषु [बाण] है, (तया पीयत: विध्यति) = उसके द्वारा यह देवहिंसकों का विनाश कर देती है।

    भावार्थ

    राजा को 'नृपति व गोपति' बनना चाहिए। वह प्रजा का रक्षण करे, ब्राह्मणों के द्वारा प्रसृत ज्ञानवाणी का भी रक्षण करे, अन्यथा यह वाणी उसे इसप्रकार समाप्त कर देती है, जैसकि विषबुझा तीर या विषैली सर्पिणी।

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (नृपते) हे नरों के पति ! (इषुः इव) बाण की तरह (दिग्धा) विष सम्पृक्त; तथा (गोपते) हे पृथिवी के पति या गौओं के पति ! [ राजन् ] (पृदाकूः इव) तथा सर्पिणी की तरह विषैली ( ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ की ( सा) वह परामर्श वाणी, (घोरा) घोर है, (तया) उस द्वारा ( पीयत: ) हिंसक को (विध्यति) वह ब्राह्मण बींधता है।

    टिप्पणी

    [दिग्धा= दिह उपचये (अदादिः)। पृदाकूः=सर्पिणी। पीयत:थ पीयतिहिंसाकर्मा (निरुक्त ४।४।२५, "चयसे" पद (५८) की व्याख्या में)। गोपते= गौः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। तथा गोपशुनाम (प्रसिद्ध)। राजा को गीपति कहा है, गौओं का रक्षक, न कि भक्षक, अतः सूक्त में गौ: परामर्श वाणी है, न कि गोपशु । मन्त्र में 'नृपते' द्वारा यह भी स्पष्ट है कि समग्र सूक्त में ब्राह्मण और राजा के पारस्परिक व्यवहार का वर्णन है ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    हे (नृपते) राजन् ! (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (सा) वह (घोरा) घोर, भयानक (इषुः) मनःकामना रूप बाण है जो (दिग्धा इषुः-इव) विष में बुझे तीर और (पृदाकूः-इव) नागिन के समान है। हे (गोपते !) गो, वाणी, वेद, भूमि के प्रतिपालक राजन् ! (पीयतः) ब्राह्मण अपने शत्रुओं और हिंसकों को (तया विध्यति) उस घोर बाण से निशाना करता और बेधता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    O ruler of the people, O protector of the nation’s Cow, like an arrow tempered in fire with poison, deadly like the strike of the cobra is the voice and piety of the Brahmana, if violated, and that is the fatal strike of his blow. With that arrow the Brahmana fixes and fells the violators of life’s sanctity, suppressors of freedom and piety, and challengers of the servants of Divinity. (Brahmana’s ‘Cow’, thus, is not a mere animal. It is the spirit and culture of humanity, it is the soul and sanctity of Nature, and it is the will and command of Divinity. To serve it means the invitation to life, to challenge it means the call for death.)

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O Lord of men, full of poison like an arrow, and like an adder, O lord of kine, she (the speech) is a terrible arrow of the intellectual, with which he pierces the abuser.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O Prince, the master of Cows! that dreadful arrow of Brahman where with he pierces his enemies is like a poisoned arrow and like a snake.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    O King, like a poisoned arrow, like a deadly snake, 0 lord of land! Dire is the Brahman's arrow-like strong determination, wherewith he pierces his enemies.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १५−(इषुः) बाणः (इव) यथा (दिग्धा) विषासक्ता (नृपते) हे नरपालक (पृदाकूः) कुत्सितशब्द-कारिणी सर्पिणी (इव) (गोपते) हे भूरक्षक (सा) पूर्वोक्ता गौर्वाणी (ब्राह्मणस्य) वेदवेत्तुः (इषुः) हननशक्तिः। अस्त्रभेदः (घोरा) कराला (तया) इष्वा (विध्यति) छिनत्ति (पीयतः) पीय हिंसायाम्−शतृ। हिंसाशीलान् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top