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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 10
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    40

    ये स॒हस्र॒मरा॑ज॒न्नास॑न्दशश॒ता उ॒त। ते ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गां ज॒ग्ध्वा वै॑तह॒व्याः परा॑भवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । स॒हस्र॑म् । अरा॑जन् । आस॑न् । द॒श॒ऽश॒ता: । उ॒त । ते । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । गाम् । ज॒ग्ध्वा । वै॒त॒ऽह॒व्या: । परा॑ । अ॒भ॒व॒न् ॥१८.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये सहस्रमराजन्नासन्दशशता उत। ते ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा वैतहव्याः पराभवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । सहस्रम् । अराजन् । आसन् । दशऽशता: । उत । ते । ब्राह्मणस्य । गाम् । जग्ध्वा । वैतऽहव्या: । परा । अभवन् ॥१८.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (सहस्रम्) बलवान् सेना दल पर (अराजन्) राज करते थे और (उत) आप भी (दशशताः) दस सौ (आसन्) थे। (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) वाणी को (जग्ध्वा) नाश करके (ते) वे (वैतहव्याः) देवताओं के अन्न खानेवाले (पराभवन्) हार गये ॥१०॥

    भावार्थ

    जिन मनुष्यों के बहुत सी सेना और परिवार भी बड़ा होता है, वे पाखण्डी वेद आज्ञा पर न चल कर नष्ट हो जाते हैं ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(ये) पाखण्डिनः (सहस्रम्) सहस्वत्−निरु–० ३।१०। सहो बलम्−निघ० २।१, रो मत्वर्थीयः। बलवत् सेनादलम् (अराजन्) अशासुः (आसन्) अभवन् (दशशताः) अर्शआद्यच्। दशशतयुक्ताः। बहुसंख्याकाः (उत) अपि (ते) (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्तुः (गाम्) वाणीम् (जग्ध्वा) भक्षयित्वा नाशयित्वा (वैतहव्याः) वी खादने−क्त। वीतं खादितं हव्यं देवयोग्यान्नं यैस्ते वीतहव्याः। स्वार्थे अण् (पराभवन्) पराजयं प्राप्तवन्तः ॥

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    विषय

    वैतहव्यों का पराभव

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (वैतहव्याः) = दान-योग्य हव्यपदार्थों को स्वयं खा जानेवाले-प्रजा से प्राप्त 'कर' को प्रजाहित में विनियुक्त न करके अपनी मौज में व्यय करनेवाले राजा (सहस्त्रम्) = [सहस्-बल] बल-सम्पन्न सेना का (अराजन्) = शासन करते थे, (उत) = और स्वयं भी (दशशताः आसन्) = हजारों की संख्या में थे, अर्थात् बड़े परिवार या बन्धुवाले थे, (ते) = वे (ब्राह्मणस्य) = ब्राह्मण की (गां जग्ध्वा) = ज्ञान की वाणी को खाकर (पराभवन्) = पराभूत हो गये। २. ये वैतहव्य राजा कितने भी प्रबल हों यदि ये अपने बल के अभिमान में ज्ञानी ब्राह्मणों की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाना चाहेंगे तो इनका पराभव ही होगा।

    भावार्थ

    बल के अभिमान में विलासी राजा ब्राह्मणों की वाणी पर प्रतिबन्ध लगाते हैं और परिणामतः विनष्ट हो जाते हैं।

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    भाषार्थ

    (ये) जिन (सहस्रम्) हजारों ने (अराजन्) राज्य किया, (उत) तथा जो (दशशताः) 'दस-सौ' (आसन्) थे, (ते) वे (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् की (गाम्) परामर्शवाणी को (जग्धवा ) खाकर [विनष्ट कर, उपेक्षित कर] (वैतहव्याः ) अदन-योग्य अन्न से वञ्चित होकर, (पराभवन् ) पराभूत हो गये।

    टिप्पणी

    [ब्राह्मण की परामर्शवाणी को उपेक्षित कर वैतहव्य, प्रजा द्वारा अन्नखाने से भी वञ्चित कर दिये गये और पराभूत भी हुए, राज्य से भी वञ्चित कर दिये गये। गौः वाङ्नाम (निघं० १।११)। वैतहव्याः= विगत +ह अदने (जुहोत्यादिः)। वैतहव्याः=वीतहव्य + अण् (स्वार्थे)। दशशताः का अभिप्राय है सौ-सौ की संख्या में दस बार पराभूत हुए (मन्त्र १२)।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये) जो (वैत-हव्याः) दान योग्य हवि पदार्थों को स्वयं खा जाने वाले पुरुष पहले (सहस्रम्) सहस्रों प्रकार के बलों से (अराजन्) वैभव को प्राप्त कर लेते हैं (उत) और चाहे (दशशताः आसन्) वे दसों, सैकड़ों, हज़ारों भी क्यों न हों तो भी (ते) वे (ब्राह्मणस्य गां) ब्राह्मण की गौ, भूमि, सम्पत्ति, विद्या, देह-वृत्ति आदि को (जग्ध्वा) खाकर, हड़प कर (परा अभवन्) पराजय को ही प्राप्त हो जाते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    The revilers of divinity who may shine and blaze and rule a thousand ways of strength and prosperity, who may be in tens, hundreds or even thousands well provided with yajnic materials, yet having violated and eaten up the Brahmana’s Cow, they become self- deprived and fall exhausted and defeated.

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    Translation

    Those a thousand, wlio behaved as kings, or who were ten 2hundred, they misappropriators of the sacrificial offerings, having devoured the intellectual’s cow, suffered defeat inconceivably.

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    Translation

    These sacrilegious persons who are to eat the oblation of Yajna, are thousand in numbers and rule the people or those who are ten hundred in number—become destroyed eating of the cow of Brahman.

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    Translation

    They who, robbed the sages of their foodstuffs, and were the rulers of a thousand men, themselves numbering ten hundred, were finally vanquished as they destroyed the knowledge of a Vedic scholar.

    Footnote

    Griffith considers Vaitahavyas as a tribe or people in the north; literally, descendants Of Vitahavya, a Rishi, This explanation is unacceptable, as there is no history in the Vedas. The word means, the persons who rob the sages of their foodstuffs. They who destroy, burn 1he library of a Vedic scholar are finally ruined.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(ये) पाखण्डिनः (सहस्रम्) सहस्वत्−निरु–० ३।१०। सहो बलम्−निघ० २।१, रो मत्वर्थीयः। बलवत् सेनादलम् (अराजन्) अशासुः (आसन्) अभवन् (दशशताः) अर्शआद्यच्। दशशतयुक्ताः। बहुसंख्याकाः (उत) अपि (ते) (ब्राह्मणस्य) ब्रह्मवेत्तुः (गाम्) वाणीम् (जग्ध्वा) भक्षयित्वा नाशयित्वा (वैतहव्याः) वी खादने−क्त। वीतं खादितं हव्यं देवयोग्यान्नं यैस्ते वीतहव्याः। स्वार्थे अण् (पराभवन्) पराजयं प्राप्तवन्तः ॥

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