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अथर्ववेद के काण्ड - 5 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 13
    ऋषिः - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
    40

    दे॑वपी॒युश्च॑रति॒ मर्त्ये॑षु गरगी॒र्णो भ॑व॒त्यस्थि॑भूयान्। यो ब्रा॑ह्म॒णं दे॒वब॑न्धुं हि॒नस्ति॒ न स पि॑तृ॒याण॒मप्ये॑ति लो॒कम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒व॒ऽपी॒यु: । च॒र॒ति॒ । मर्त्ये॑षु । ग॒र॒ऽगी॒र्ण: । भ॒व॒ति॒ । अस्थि॑ऽभूयान् । य: । ब्र॒ह्मा॒णम् । दे॒वऽब॑न्धुम् । हि॒नस्ति॑ । न । स: । पि॒तृ॒ऽयान॑म् । अपि॑ । ए॒ति॒ । लो॒कम् ॥१८.१३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवपीयुश्चरति मर्त्येषु गरगीर्णो भवत्यस्थिभूयान्। यो ब्राह्मणं देवबन्धुं हिनस्ति न स पितृयाणमप्येति लोकम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवऽपीयु: । चरति । मर्त्येषु । गरऽगीर्ण: । भवति । अस्थिऽभूयान् । य: । ब्रह्माणम् । देवऽबन्धुम् । हिनस्ति । न । स: । पितृऽयानम् । अपि । एति । लोकम् ॥१८.१३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 18; मन्त्र » 13
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (देवपीयुः) विद्वानों का सतानेवाला (मर्त्येषु) मनुष्यों के बीच (चरति) फिरता है, (गरगीर्णः) विष खाया हुआ वह (अस्थिभूयान्) हाड़ ही हाड़ (भवति) रह जाता है। (यः) जो मनुष्य (देवबन्धुम्) महात्माओं के बन्धु (ब्राह्मणम्) ब्राह्मण को (हिनस्ति) सताता है, (सः) वह (पितृयाणम्) पालन करनेवाले विद्वानों के पाने योग्य (लोकम्) लोक को (न अपि) कभी नहीं (एति) पाता है ॥१३॥

    भावार्थ

    देवनिन्दक पुरुष अविद्या के कारण दुर्बल आत्मा और रोगी होकर विद्वानों में प्रतिष्ठा नहीं पाता ॥१३॥

    टिप्पणी

    १३−(देवपीयुः) म० ५। विदुषां हिंसकः (चरति) गच्छति (मर्त्येषु) मनुष्येषु (गरगीर्णः) गॄ निगरणे−अप्+गॄ−क्त। परो विषो गीर्णो भक्षितो येन सः (भवति) (अस्थिभूयान्) अस्थि+बहु−ईयसुन्। बहोर्लोपो भू च बहोः। पा० ६।४।१५८। इति ईकारलोपो बहोश्च भूरादेशः। अस्थिभिर्बहुतरः। अस्थिशेषः। अतिदुर्बलः (यः) पाखण्डी (ब्राह्मणम्) वेदवेत्तारम् (देवबन्धुम्) विदुषां प्रियम् (हिनस्ति) दुःखयति (न अपि) न कदापि (सः) दुष्टः (पितृयाणम्) पितृभिः पालकैर्विद्वद्भिर्गमनीयम् (एति) प्राप्नोति (लोकम्) पदम्। भुवनम् ॥

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    विषय

    गरगीर्ण: अस्थिभूयान्

    पदार्थ

    १. (देवपीयुः) = देवों-ज्ञानियों का हिंसन करनेवाला राजा (मर्त्येषु) = मनुष्यों में (गरगीर्णः चरति) = मानो विष पिये हुए घूमता है, अर्थात् उसकी अवस्था वही हो जाती है, जो उस पुरुष की, जिसने कि ग़लती से विष पी लिया हो। यह (अस्थिभूयान् भवति) = हड्डी-हड्डीवाला हो जाता है-अस्थि-पंजर-सा रह जाता है। २. (यः) = जो (देवबन्धुम्) =  प्रभु के मित्र (ब्राह्मणम्) = ज्ञानी पुरुष का (हिनस्ति) = हिंसन करता है, सः वह राजा देवयानलोक को प्राप्त करने की बात तो दूर रही (पितृयाणं लोकं अपि न एति) =  पितृयाणलोक को भी प्राप्त नहीं करता। यदि यह प्रजा का रक्षण करता तभी तो पितृयाणलोक को प्राप्त करता। ब्राह्मणी प्रजा का हिंसन करने से इसके लिए इस लोक की प्राप्ति सम्भव कहाँ? यह तो विनष्ट ही होता है।

    भावार्थ

    जो राजा देवों का हिंसन करता है, वह विष पिये हुए के समान अस्थि-पंजर सा रह जाता है, इसे उत्तम लोक की प्राप्ति नहीं होती।

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    भाषार्थ

    (देवपीयुः) ब्राह्मण देवों की हिंसा करनेवाला राजा ( गरगीर्ण:) विष खाया हुआ, (अस्थिभूयान्) अस्थिप्राय अर्थात् अस्थियों का ढाँचा [अस्थिपञ्जर] (भवति) ही होता है, और (मर्त्येषु ) मर्त्य-प्रजाओं में (चरति) विचरता है, (यः) जोकि (देवबन्धुम् ) देवों के बन्धु [ब्राह्मणम्] ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ की (हिनस्ति) हिंसा करता है, (स:) वह राजा (पितृयाणम् ) माता-पिता आदि द्वारा प्रापणीय (लोकम् ) गृहस्थलोक को (अपि) भी (न एति) नहीं प्राप्त करता।

    टिप्पणी

    [पित्याणम्= पितृयाणम् पद के साथ प्राय: 'पथ' शब्द का कथन होता है। 'लोक' का नहीं। पितृलोकम् द्वारा गृहस्थलोक प्रतीत होता है। ब्राह्मण की हत्या करनेवाला राजा न तो गृहस्थ को प्राप्त कर पाता है, यदि प्राप्त किया हुआ भी हो तो दण्डरूप में वह गृहस्थ जीवन से वञ्चित कर दिया जाता है।]

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    विषय

    ब्रह्मगवी का वर्णन।

    भावार्थ

    (देव-पीयुः) विद्वान् पुरुषों को सताने वाला पुरुष (मर्त्येषु) मनुष्यों के बीच में (गर-गीर्णः चरति) मानो ज़हर पिये घूमता है। (अस्थिभूयान् भवति) केवल बड़े २ हाड़ उठाये रहता है। (यः) जो (देवबन्धुम्) देव-विद्वान् और ईश्वर की दिव्य शक्तियों या ईश्वर को बन्धु मानने वाले (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञ, ब्राह्मण को (हिनस्ति) पीड़ा देता है (सः) वह (पितृयाणम् लोकम् अपि) पितृयाण लोक को भी (न एति) प्राप्त नहीं होता।

    टिप्पणी

    दो यान हैं—देवयान और पितृयाण।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Brahma Gavi

    Meaning

    The reviler of divinity moves among the mortals but only as a bagful of poison and a structure of blood and bone. Any one who hurts, suppresses, violates and thus kills a Brahmana, brother of divinities, fails to reach even the fringe of average house holder’s peace and joy by the paths of his forefathers.

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    Translation

    A derider of the enlightened ones moves about among men, as if, he has swallowed poison. He becomes composed mostly of bones. Who-so smites an intellectual, the kin of the enlightened ones, he does not reach even the sphere of the elders.

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    Translation

    The sacrilegious man who inflicts injury to Brahmana who worships God and Performs Yajnas, wanders among mankind drunk with poison, remains the heap of bomes, and never gains the glorious region travelled by his ancestors.

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    Translation

    The despiser of the learned moveth among mankind: he hath drunk poison, naught but bone is left him, who wrongs the Brahman, the lover of God, gains not the sphere attained by the ancestors.

    Footnote

    Sphere: The eminent spiritual height.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १३−(देवपीयुः) म० ५। विदुषां हिंसकः (चरति) गच्छति (मर्त्येषु) मनुष्येषु (गरगीर्णः) गॄ निगरणे−अप्+गॄ−क्त। परो विषो गीर्णो भक्षितो येन सः (भवति) (अस्थिभूयान्) अस्थि+बहु−ईयसुन्। बहोर्लोपो भू च बहोः। पा० ६।४।१५८। इति ईकारलोपो बहोश्च भूरादेशः। अस्थिभिर्बहुतरः। अस्थिशेषः। अतिदुर्बलः (यः) पाखण्डी (ब्राह्मणम्) वेदवेत्तारम् (देवबन्धुम्) विदुषां प्रियम् (हिनस्ति) दुःखयति (न अपि) न कदापि (सः) दुष्टः (पितृयाणम्) पितृभिः पालकैर्विद्वद्भिर्गमनीयम् (एति) प्राप्नोति (लोकम्) पदम्। भुवनम् ॥

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