अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 18/ मन्त्र 4
ऋषिः - मयोभूः
देवता - ब्रह्मगवी
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त
61
निर्वै क्ष॒त्रं नय॑ति हन्ति॒ वर्चो॒ऽग्निरि॒वार॑ब्धो॒ वि दु॑नोति॒ सर्व॑म्। यो ब्रा॑ह्म॒णं मन्य॑ते॒ अन्न॑मे॒व स वि॒षस्य॑ पिबति तैमा॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठनि: । वै । क्ष॒त्रम् । नय॑ति । हन्ति॑ । वर्च॑: । अ॒ग्नि:ऽइ॑व । आऽर॑ब्ध: । वि । दु॒नो॒ति॒ । सर्व॑म् । य: । ब्रा॒ह्म॒णम् । मन्य॑ते । अन्न॑म् । ए॒व । स: । वि॒षस्य॑ । पि॒ब॒ति॒ । तै॒मा॒तस्य॑ ॥१८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
निर्वै क्षत्रं नयति हन्ति वर्चोऽग्निरिवारब्धो वि दुनोति सर्वम्। यो ब्राह्मणं मन्यते अन्नमेव स विषस्य पिबति तैमातस्य ॥
स्वर रहित पद पाठनि: । वै । क्षत्रम् । नयति । हन्ति । वर्च: । अग्नि:ऽइव । आऽरब्ध: । वि । दुनोति । सर्वम् । य: । ब्राह्मणम् । मन्यते । अन्नम् । एव । स: । विषस्य । पिबति । तैमातस्य ॥१८.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदविद्या की रक्षा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो मनुष्य (ब्राह्मणम्) ब्रह्मज्ञानी को (अन्नम्) अन्न (एव) ही (मन्यते) मानता है, (सः) वह (तैमातस्य) जल में भीगे (विषस्य) विष का (पिबति) पान करता है, (वै) निश्चय करके (क्षत्रम्) अपना धन वा बल (निर् नयति) बाहिर फेंकता है, (वर्चः) अपना तेज (हन्ति) खोता है, और (आरब्धः) चारों ओर से लगी हुई (अग्निः इव) अग्नि के समान (सर्वम्) अपना सब कुछ (वि दुनोति) जला देता है ॥४॥
भावार्थ
वेदज्ञानियों को सतानेवाला पुरुष अज्ञान के कारण अपने आप ही अपना नाश कर लेता है ॥४॥
टिप्पणी
४−(निर्) बहिर्भावे (वै) निश्चयेन (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षतात् त्रायकं बलं धनं वा (नयति) प्रापयति (हन्ति) नाशयति (वर्चः) तेजः (अग्निः) पावकः (इव) यथा (आरब्धः) समन्तादुद्यतः। प्रज्वलितः (वि) विशेषेण (दुनोति) उपतापयति (सर्वम्) सम्पूर्णपदार्थजातम् (यः) दुष्टः (ब्राह्मणम्) अनूचानम् (मन्यते) जानाति (अन्नम्) अदनीयं वस्तु (एव) निश्चयेन (सः) दुराचारी (विषस्य) हलाहलस्य (पिबति) पानं करोति (तैमातस्य) अ० ५।१३।६। तिमात−अण्। तिमातेन क्लेदनसाधनेन जलेन युक्तस्य ॥
विषय
'क्षत्र व वर्चस् ' का विनाश
पदार्थ
१. (यः) = जो घमण्डी राजा (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञानी को (अन्नं मन्यते) = [अद्यते] खा जाने योग्य मानता है और उसके ज्ञान-प्रसार कार्य पर प्रतिबन्ध लगा देता है, (स:) = वह राजा इस कार्य को करता हुआ मानो (तैमातस्य विषस्य पिबति) = फनियर नाग के विष को ही पीता है। २. यह ब्रह्मप्रतिबन्धक राजा (वै) = निश्चय से (क्षत्रम्) = बल को (नि: नयति) = बाहर फेंक देता है, अर्थात् इसका बल नष्ट हो जाता है। यह (वर्चः हन्ति) = अपनी प्राणशक्ति को नष्ट कर लेता है, परिणामत: रुग्ण शरीरवाला हो जाता है और (आरब्धः) = चारों [आ+रभ] ओर से लगी हुई (अग्नि: इव) = अग्नि के समान (सर्व विदुनोति) = अपना सब-कुछ जला बैठता है, राष्ट्र को ही विनष्ट कर लेता है।
भावार्थ
ज्ञानप्रसार पर प्रतिबन्ध लगाना भयंकर विष को पीने के समान है । इससे राष्ट्र की शत्रुप्रतिरोधक शक्ति नष्ट हो जाती है, राष्ट्र के व्यक्तियों की प्राणशक्ति क्षीण हो जाती है, सारा राष्ट्र भस्म-सा हो जाता है।
भाषार्थ
[ब्राह्मण ] (क्षत्रम् ) क्षत्रिय राजा को (वै) निश्चय से, (निर् नयति) राष्ट्र से बाहर निकाल देता है, (वर्चः) क्षत्रिय-राजा के वर्चस् का (हन्ति) हनन कर देता है, (आरब्धः) सब ओर लगी हुई ( अग्नि: इव ) अग्नि के सदृश (सर्वम् ) सबको (विदुनोति) उपतप्त कर देता है, जला देता है, (यः) जो क्षत्रिय-राजा कि (ब्राह्मणम् ) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ को (अन्नम् एव) अन्न ही (मन्यते) मानता है (सः) वह (तैमातस्य) जल में घुले ( विषस्य) विष का (पिबति) मानो पान करता है।
टिप्पणी
[दुनोति=दु उपतापे (स्वादिः)। तैमातस्य=तिम आर्दीभावे (दिवादिः)।]
विषय
ब्रह्मगवी का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (ब्राह्मणं) ब्राह्मण या विद्वान् सदाचारी तपस्वी पुरुष को (अन्नम् एव मन्यते) दाल-भात का गस्सा समझ लेता है, (सः) वह (तैमातस्य) फनियर नाग के (विपस्य) विष की घूंट (पिबति) पी लेता है, क्योंकि ब्राह्मण के ऊपर आघात करने से ब्रह्मतेज राजा के (वै) निश्चय से (क्षत्रं निः नयति) बल का नाश कर देता है, (वर्चः हन्ति) उसके तेज को नष्ट कर देता है, और (आरब्धः) राजा के पीछे लग जाय तो (अग्निः इव) आग के समान भड़क कर (सर्वम्) उसके सर्वस्व राज पाट को (वि दुनोति) नाना प्रकार से नाश कर डालता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मयोभूर्ऋषिः। ब्रह्मगवी देवता। १-३, ६, ७, १०, १२, १४, १५ अनुष्टुभः। ४, ५, ८, ९, १३ त्रिष्टुभः। ४ भुरिक्। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Brahma Gavi
Meaning
The ruler who takes the Brahmana only for a morsel of food is like a drunkard taking a draught of cobra poison for drink which ruins the dominion, darkens his splendour and, like lighted fire rising to a blaze, shakes everything and reduces him to naught.
Translation
She (the intellectual's cow) takes away the fighting spirit, destroys the valour, and like fire enkindled, she burns up everything. Whosoever thinks an intellectual to be just his food, surely he drinks the deadly adder's poison.
Translation
The man who treats the Brahman as mare food to feed him, drinks really the poison of the dreadful snake. The Brahmana treated thus, takes away his strength, mars the splendor and like the fire ablaze destroys everything.
Translation
He, who counts the Brahman's property as mere food to feed him, drinks poison of the deadly serpent, loses his strength, mars his splendor, and ruins everything like fire enkindled.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(निर्) बहिर्भावे (वै) निश्चयेन (क्षत्रम्) अ० २।१५।४। क्षतात् त्रायकं बलं धनं वा (नयति) प्रापयति (हन्ति) नाशयति (वर्चः) तेजः (अग्निः) पावकः (इव) यथा (आरब्धः) समन्तादुद्यतः। प्रज्वलितः (वि) विशेषेण (दुनोति) उपतापयति (सर्वम्) सम्पूर्णपदार्थजातम् (यः) दुष्टः (ब्राह्मणम्) अनूचानम् (मन्यते) जानाति (अन्नम्) अदनीयं वस्तु (एव) निश्चयेन (सः) दुराचारी (विषस्य) हलाहलस्य (पिबति) पानं करोति (तैमातस्य) अ० ५।१३।६। तिमात−अण्। तिमातेन क्लेदनसाधनेन जलेन युक्तस्य ॥
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