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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    वि॒षमे॒तद्दे॒वकृ॑तं॒ राजा॒ वरु॑णोऽब्रवीत्। न ब्रा॑ह्म॒णस्य॒ गां ज॒ग्ध्वा रा॒ष्ट्रे जा॑गार॒ कश्च॒न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒षम् । ए॒तत् । दे॒वऽकृ॑तम् । राजा॑ । वरु॑ण: । अ॒ब्र॒वी॒त् । न । ब्रा॒ह्म॒णस्य॑ । गाम् । ज॒ग्ध्वा । रा॒ष्ट्रे । जा॒गा॒र॒ । क: । च॒न ॥१९.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विषमेतद्देवकृतं राजा वरुणोऽब्रवीत्। न ब्राह्मणस्य गां जग्ध्वा राष्ट्रे जागार कश्चन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विषम् । एतत् । देवऽकृतम् । राजा । वरुण: । अब्रवीत् । न । ब्राह्मणस्य । गाम् । जग्ध्वा । राष्ट्रे । जागार । क: । चन ॥१९.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 10

    पदार्थ -
    (राजा) राजा (वरुणः) श्रेष्ठ परमात्मा ने (अब्रवीत्) कहा है “(एतत्) यह (देवकृतम्) इन्द्रियों से किया हुआ (विषम्) विष [समान पाप] है, (कश्चन) कोई भी (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण की (गाम्) विद्या को (जग्ध्वा) हड़पकर (राष्ट्रे) राज्य में (न) नहीं (जागार) जागता रहा है” ॥१०॥

    भावार्थ - परमेश्वर ने उपदेश किया है कि जैसे विष खाने से मनुष्य अचेत हो जाता है, वैसे ही वेदविद्या के नाश से सब लोग आलसी और निरुत्साही हो जाते हैं ॥१०॥

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