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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 19

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 12
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मगवी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मगवी सूक्त

    यां मृ॒ताया॑नुब॒ध्नन्ति॑ कू॒द्यं॑ पद॒योप॑नीम्। तद्वै ब्र॑ह्मज्य ते दे॒वा उ॑प॒स्तर॑णमब्रुवन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । मृ॒ताय॑ । अ॒नु॒ऽब॒ध्नन्ति । कू़॒द्य᳡म् । प॒द॒ऽयोप॑नीम् । तत् । वै । ब्र॒ह्म॒ऽज्य॒ । ते॒ । दे॒वा: । उ॒प॒ऽस्तर॑णम् । अ॒ब्रु॒व॒न् ॥१९.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यां मृतायानुबध्नन्ति कूद्यं पदयोपनीम्। तद्वै ब्रह्मज्य ते देवा उपस्तरणमब्रुवन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । मृताय । अनुऽबध्नन्ति । कू़द्यम् । पदऽयोपनीम् । तत् । वै । ब्रह्मऽज्य । ते । देवा: । उपऽस्तरणम् । अब्रुवन् ॥१९.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (याम्) जिस (पदयोपनीम्) पद व्याकुल करनेवाली (कूद्यम्=कूदीम्) दुःखित शब्द देनेवाली बेड़ी को (मृताय) मरने के लिये (अनुबन्धन्ति) जकड़ देते हैं। (ब्रह्मज्य) हे ब्राह्मण के हानिकारक ! (देवाः) महात्माओं ने (तत्) उसको (वै) अवश्य (ते) तेरे लिये (उपस्तरणम्) विस्तर (अब्रुवन्) कहा है ॥१२॥

    भावार्थ - दुराचारी नास्तिकों को कारागार आदि में रख कर कठिन दण्ड देवें ॥१२॥

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