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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 22

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 22/ मन्त्र 8
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - तक्मनाशनः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - तक्मनाशन सूक्त

    म॑हावृ॒षान्मूज॑वतो॒ बन्ध्व॑द्धि प॒रेत्य॑। प्रैतानि॑ त॒क्मने॑ ब्रूमो अन्यक्षे॒त्राणि॒ वा इ॒मा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒हा॒ऽवृ॒षान् । मूज॑ऽवत: । बन्धु॑।अ॒ध्दि॒ । प॒रा॒ऽइत्य॑ ।प्र । ए॒तानि॑ । त॒क्मने॑ । ब्रू॒म॒: । अ॒न्य॒ऽक्षे॒त्राणि॑ । वै । इ॒मा ॥२२.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    महावृषान्मूजवतो बन्ध्वद्धि परेत्य। प्रैतानि तक्मने ब्रूमो अन्यक्षेत्राणि वा इमा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    महाऽवृषान् । मूजऽवत: । बन्धु।अध्दि । पराऽइत्य ।प्र । एतानि । तक्मने । ब्रूम: । अन्यऽक्षेत्राणि । वै । इमा ॥२२.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 22; मन्त्र » 8

    पदार्थ -
    (परेत्य) दूर जाकर (महावृषान्) बड़ी वृष्टिवाले देशों और (मूजवतः) मूजवाले पहाड़ों, (बन्धु=बन्धून्) अपने बन्धुओं को (अद्धि) खाले। (एतानि) इन और (इमा=इमानि) इन (अन्यक्षेत्राणि) अन्य निवासस्थानों को (तक्मने) ज्वर के लिये (वै) अवश्य (प्रब्रूमः) हम बताये देते हैं ॥८॥

    भावार्थ - अधिक वृष्टिवाले, अधिक तृणवाले, और इसी प्रकार अधिक तापवाले देशों में प्राणी ज्वर से पीड़ित रहते हैं। इससे मनुष्य उचित प्रबन्ध रक्खें ॥८॥

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