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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 30

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 30/ मन्त्र 14
    सूक्त - चातनः देवता - आयुः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायुष्य सूक्त

    प्रा॒णेना॑ग्ने॒ चक्षु॑षा॒ सं सृ॑जे॒मं समी॑रय त॒न्वा॒ सं बले॑न। वेत्था॒मृत॑स्य॒ मा नु गा॒न्मा नु भूमि॑गृहो भुवत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒णेन॑ । अ॒ग्ने॒ । चक्षु॑षा । सम् । सृ॒ज॒ । इ॒मम् । सम् । ई॒र॒य॒ । त॒न्वा᳡ । सम् । बले॑न । वेत्थ॑ । अ॒मृत॑स्य । मा । नु । गा॒त् । मा । नु । भूमि॑ऽगृह: । भु॒व॒त् ॥३०.१४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राणेनाग्ने चक्षुषा सं सृजेमं समीरय तन्वा सं बलेन। वेत्थामृतस्य मा नु गान्मा नु भूमिगृहो भुवत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राणेन । अग्ने । चक्षुषा । सम् । सृज । इमम् । सम् । ईरय । तन्वा । सम् । बलेन । वेत्थ । अमृतस्य । मा । नु । गात् । मा । नु । भूमिऽगृह: । भुवत् ॥३०.१४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 30; मन्त्र » 14

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे ज्ञानमय परमात्मन् ! (इमम्) इस पुरुष को (प्राणेन) प्राण [जीवनसामर्थ्य] से और (चक्षुषा) दृष्टि से (सं सृज) संयुक्त कर, और [उसे] (तन्वा) शरीर से और (बलेन) बल से (सम् सम् ईरय) अच्छे प्रकार आगे बढ़ा। तू (अमृतस्य) अमरपन का (वेत्थ) जाननेवाला है। वह [पुरुष] (नु) अव (मा गात्) न चला जावे, और (मा नु) न कभी (भूमिगृहः) भूमि में घरवाला [अर्थात् गुप्त निवासवाला] (भुवत्) होवे ॥१४॥

    भावार्थ - परमेश्वर से प्रार्थना करता हुआ मनुष्य सब प्रकार पुरुषार्थ करके कीर्तिमान् होवे, और ऐसा काम न करे जिस से समाज में उसे नीचा देखना पड़े ॥१४॥

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