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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 104

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
    सूक्त - प्रशोचन देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    आ॒दाने॑न सं॒दाने॑ना॒मित्रा॒ना द्या॑मसि। अ॑पा॒ना ये चै॑षां प्रा॒णा असु॒नासू॒न्त्सम॑च्छिदन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽदाने॑न । स॒म्ऽदाने॑न । अ॒मित्रा॑न् । आ । द्या॒म॒सि॒ । अ॒पा॒ना: । ये । च॒ । ए॒षा॒म् । प्रा॒णा: । असु॑ना । असू॑न् । सम् । अ॒च्छि॒द॒न् ॥१०४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आदानेन संदानेनामित्राना द्यामसि। अपाना ये चैषां प्राणा असुनासून्त्समच्छिदन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽदानेन । सम्ऽदानेन । अमित्रान् । आ । द्यामसि । अपाना: । ये । च । एषाम् । प्राणा: । असुना । असून् । सम् । अच्छिदन् ॥१०४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 104; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (आदानेन) आकर्षणपाश से और (सन्दानेन) बन्धनपाश से (अमित्रान्) अपने शत्रुओं को (आ द्यामसि) हम बाँधते हैं। (च) और (एषाम्) इनके (ये) जो (अपानाः) अपान वायु और (प्राणाः) प्राण वायु हैं। (असून्) उनके प्राणों को (असुना) अपनी बुद्धि से (सम् अच्छिदन्) उन [हमारे वीरों] ने छिन्न-भिन्न कर दिया है ॥१॥

    भावार्थ - शूरवीर धावा करके अपने अस्त्र-शस्त्रों से शत्रुओं को जीवन से हताश करके निर्बल करें ॥१॥

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