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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 15

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 15/ मन्त्र 3
    सूक्त - उद्दालक देवता - वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त

    यथा॒ सोम॒ ओष॑धीनामुत्त॒मो ह॒विषां॑ कृ॒तः। त॒लाशा॑ वृ॒क्षाना॑मिवा॒हं भू॑यासमुत्त॒मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । सोम॑: । ओष॑धीनाम् । उ॒त्ऽत॒म: । ह॒विषा॑म् । कृ॒त: । त॒लाशा॑ । वृ॒क्षाणा॑म्ऽइव । अ॒हम् । भू॒या॒स॒म् । उ॒त्ऽत॒म: ॥१५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा सोम ओषधीनामुत्तमो हविषां कृतः। तलाशा वृक्षानामिवाहं भूयासमुत्तमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । सोम: । ओषधीनाम् । उत्ऽतम: । हविषाम् । कृत: । तलाशा । वृक्षाणाम्ऽइव । अहम् । भूयासम् । उत्ऽतम: ॥१५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 15; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (यथा) जैसे (सोमः) अमृत [अन्न वा सोम लता] (ओषधीनाम्) तापनाशक ओषधियों और (हविषाम्) ग्राह्य पदार्थों में (उत्तमः) उत्तम (कृतः) बनाया गया है। और (वृक्षाणाम् इव) जैसे उत्तम पदार्थों में (तलाशा) आश्रय प्राप्त करनेवाली लक्ष्मी है, [वैसे ही] (अहम्) मैं (उत्तम) उत्तम (भूयासम्) हो जाऊँ ॥३॥

    भावार्थ - मनुष्य अन्न, सुवर्ण आदि पदार्थ प्राप्त करके उत्तम होवें ॥३॥

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