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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 83/ मन्त्र 1
    सूक्त - अङ्गिरा देवता - सूर्यः, चन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    अप॑चितः॒ प्र प॑तत सुप॒र्णो व॑स॒तेरि॑व। सूर्यः॑ कृ॒णोतु॑ भेष॒जं च॒न्द्रमा॒ वोऽपो॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अप॑ऽचित: । प्र । प॒त॒त॒ । सु॒ऽप॒र्ण: । व॒स॒ते:ऽइ॑व । सूर्य॑: । कृ॒णोतु॑ । भे॒ष॒जम् । च॒न्द्रमा॑: । व॒: । अप॑ । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अपचितः प्र पतत सुपर्णो वसतेरिव। सूर्यः कृणोतु भेषजं चन्द्रमा वोऽपोच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अपऽचित: । प्र । पतत । सुऽपर्ण: । वसते:ऽइव । सूर्य: । कृणोतु । भेषजम् । चन्द्रमा: । व: । अप । उच्छतु ॥८३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 83; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (अपचितः) हे सुख नाश करनेवाली गण्डमाला आदि पीड़ाओ ! (प्र पतत) चली जाओ, (सुपर्णः इव) जैसे शीघ्रगामी पक्षी [श्येन] (वसतेः) अपनी वसती से। (सूर्यः) प्रेरणा करनेवाला [वैद्य वा सूर्य लोक] (भेषजम्) औषध (कृणोतु) करे, और (चन्द्रमाः) आनन्द देनेवाला [वैद्य वा चन्द्र लोक] (वः) तुम को (अप उच्छतु) निकाल देवे ॥१॥

    भावार्थ - जैसे सद्वैद्य गण्डमाला आदि रोगों को सूर्य वा चन्द्रमा की किरणों द्वारा वा अन्य औषधों से अच्छा करता है, वैसे ही मनुष्य विद्या की प्राप्ति से अविद्या का नाश करके सुखी होवें ॥१॥

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