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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 83/ मन्त्र 4
    सूक्त - अङ्गिरा देवता - सूर्यः, चन्द्रः छन्दः - एकावसाना द्विपदा निचृदार्ची सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    वी॒हि स्वामाहु॑तिं जुषा॒णो मन॑सा॒ स्वाहा॒ मन॑सा॒ यदि॒दं जु॒होमि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वी॒हि । स्वाम् । आऽहु॑तिम् । जु॒षा॒ण: । मन॑सा । स्वाहा॑ । मन॑सा । यत् । इ॒दम् । जु॒होमि॑ ॥८३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वीहि स्वामाहुतिं जुषाणो मनसा स्वाहा मनसा यदिदं जुहोमि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वीहि । स्वाम् । आऽहुतिम् । जुषाण: । मनसा । स्वाहा । मनसा । यत् । इदम् । जुहोमि ॥८३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 83; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [हे मनुष्य !] (मनसा) मन से (जुषाणः) प्रीति करता हुआ तू (स्वाम्) अपनी (आहुतिम्) धर्म से देने लेने योग्य क्रिया को (वीहि) प्राप्त हो, (यत्) क्योंकि (स्वाहा) सुन्दर वाणी से और (मनसा) उत्तम विचार से (इदम्) ऐश्वर्य का कारण ज्ञान (जुहोमि) मैं देता हूँ ॥४॥

    भावार्थ - मनुष्य ईश्वर और विद्वानों के उपदेश अनुसार विचारपूर्वक पुरुषार्थ के साथ अपना कर्तव्य पालन करके प्रसन्न होवे ॥४॥

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