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अथर्ववेद > काण्ड 6 > सूक्त 83

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  • अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिरा देवता - सूर्यः, चन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - भैषज्य सूक्त

    अ॒सूति॑का रामाय॒ण्यप॒चित्प्र प॑तिष्यति। ग्लौरि॒तः प्र प॑तिष्यति॒ स ग॑लु॒न्तो न॑शिष्यति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒सूति॑का । रा॒मा॒य॒णी । अ॒प॒ऽचित् । प्र । प॒ति॒ष्य॒ति॒ । ग्लौ: । इ॒त: । प्र । प॒ति॒ष्य॒ति॒ । स: । ग॒लु॒न्त: । ना॒शि॒ष्य॒ति॒ ॥८३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असूतिका रामायण्यपचित्प्र पतिष्यति। ग्लौरितः प्र पतिष्यति स गलुन्तो नशिष्यति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असूतिका । रामायणी । अपऽचित् । प्र । पतिष्यति । ग्लौ: । इत: । प्र । पतिष्यति । स: । गलुन्त: । नाशिष्यति ॥८३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 83; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    (रामायणी) प्राण वायु के रमणस्थान नाड़ियों में मार्गवाली (अपचित्) सुख नाश करनेवाली गण्डमाला आदि पीड़ा (असूतिका) बाँझ होकर (प्र पतिष्यति) चली जायगी। (ग्लौः) हर्षनाशक घाव (इतः) इस [रोगी] से (प्र पतिष्यति) चला जावेगा (सः) वह [घाव] (गलुन्तः) गलाव से कोमल होकर (नशिष्यति) नष्ट हो जावेगा ॥३॥

    भावार्थ - जिस प्रकार सद्वैद्य की ओषधि से रोग बढ़ने से रुककर नष्ट हो जाता है, वैसे ही मनुष्य विद्या की प्राप्ति से अविद्या को मिटा कर सुखी होता है ॥३॥

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