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  • यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 34
    ऋषिः - गोतम ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - भुरिक् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    यत्ते॒ गात्रा॑द॒ग्निना॑ प॒च्यमा॑नाद॒भि शूलं॒ निह॑तस्याव॒धाव॑ति।मा तद्भूम्या॒माश्रि॑ष॒न्मा तृणे॑षु दे॒वेभ्य॒स्तदु॒शद्भ्यो॑ रा॒तम॑स्तु॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। ते॒। गात्रा॑त्। अ॒ग्निना॑। प॒च्यमा॑नात्। अ॒भि। शूल॑म्। निह॑त॒स्येति॒ निऽह॑तस्य। अ॒व॒धाव॒ती॒त्य॑व॒ऽधाव॑ति। मा। तत्। भूम्या॑म्। आ। श्रि॒ष॒त्। मा। तृणे॑षु। दे॒वेभ्यः॑। तत्। उ॒शद्भ्य॒ऽइत्यु॒शत्ऽभ्यः॑। रा॒तम्। अ॒स्तु॒ ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्ते गात्रादग्निना पच्यमानादभि शूलम्निहतस्यावधावति । मा तद्भूम्यामा श्रिषन्मा तृणेषु देवेभ्यस्तदुशद्भ्यो रातमस्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। ते। गात्रात्। अग्निना। पच्यमानात्। अभि। शूलम्। निहतस्येति निऽहतस्य। अवधावतीत्यवऽधावति। मा। तत्। भूम्याम्। आ। श्रिषत्। मा। तृणेषु। देवेभ्यः। तत्। उशद्भ्यऽइत्युशत्ऽभ्यः। रातम्। अस्तु॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 25; मन्त्र » 34
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    भाषार्थ -
    हे मनुष्य! (निहतस्य) निश्चय से श्रम किए हुए अर्थात् श्रान्त (ते) तेरे (अग्निना) अन्तःकरण रूप तेज से (पच्यमानात्) पकाये जाते हुए (गात्रात्) अङ्ग से (यत्) जब (शूलम्) शीघ्र बोध कराने वाला वचन (अभ्यवधावति) निकलता है; (तत्) वह (भूम्याम्) भूमि में (मा, आश्रिषत्) वृथा न रहे, (तत्) वह (तृणेषु) तृणों में (मा, श्रिषत्) वृथा न रहे; किन्तु (तत्) वह (उशद्भ्यः) सत्पुरुषों एवं (देवेभ्यः) विद्वानों के लिए (रातम्) दान (अस्तु) हो॥ २५ । ३४ ॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो ! जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हों उन्हें वैद्यों से नीरोग करावें, वे जो औषध देते हैं वह रोगियों के लिए हितकर होती है ॥ २५ । ३४ ॥

    भाष्यसार - मनुष्य किससे क्या निकालें--श्रम करने वाले मनुष्य का शरीर अन्त:करण की अग्नि से पकने लगता है अर्थात् ज्वर आदि से पीड़ित हो जाता है। वह रोगी शूल=पीड़ा का बोध कराने वाले वचन बोलता है। वे वचन भूमि वा तृणों में ही न रहें अर्थात् व्यर्थ न हों; अपितु सत्पुरुष, विद्वान्, वैद्य लोग उन्हें स्वीकार करें तथा उन्हें नीरोग करें। उन्हें हितकर औषध प्रदान करें। रोगी के शरीर से रोग को निकालें ॥ २५ । ३४ ॥

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