यजुर्वेद - अध्याय 25/ मन्त्र 19
स्व॒स्ति न॒ऽइन्द्रो॑ वृ॒द्धश्र॑वाः स्व॒स्ति नः॑ पू॒षा वि॒श्ववे॑दाः।स्व॒स्ति न॒स्तार्क्ष्यो॒ऽअरि॑ष्टनेमिः स्व॒स्ति नो॒ बृह॒स्पति॑र्दधातु॥१९॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति। नः॒। इन्द्रः॑। वृ॒द्धश्र॑वा॒ इति॑ वृ॒द्धऽश्र॑वाः। स्व॒स्ति। नः॒। पू॒षा। वि॒श्ववेदा॒ इति॑ वि॒श्वऽवे॑दाः। स्व॒स्ति। नः॒। तार्क्ष्यः॑। अरि॑ष्टनेमि॒रित्यरि॑ष्टऽनेमिः। स्व॒स्ति। नः॒। बृह॒स्पतिः॑। द॒धा॒तु॒ ॥१९ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः । स्वस्ति नस्तार्क्ष्या अरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वस्ति। नः। इन्द्रः। वृद्धश्रवा इति वृद्धऽश्रवाः। स्वस्ति। नः। पूषा। विश्ववेदा इति विश्वऽवेदाः। स्वस्ति। नः। तार्क्ष्यः। अरिष्टनेमिरित्यरिष्टऽनेमिः। स्वस्ति। नः। बृहस्पतिः। दधातु॥१९॥
विषय - फिर मनुष्यों को किसकी इच्छा करनी चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है॥
भाषार्थ -
हे मनुष्यो ! जो--(वृद्धश्रवाः) बड़े श्रवण विज्ञान (इन्द्रः) परम ऐश्वर्यवान् ईश्वर (नः) हमारे (स्वस्ति) सुख को धारण करता है; जो (विश्ववेदाः) जगत् रूप धन वाला, (पूषा) सब ओर से पोषक ईश्वर (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख को धारण करता है; जो (तार्क्ष्य:) घोड़े के समान (अरिष्टनेमिः) सुखों को प्राप्त कराने वाला होकर (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख को धारण करता है; जो (बृहस्पतिः) महत् तत्त्व आदि का स्वामी एवं पालक (नः) हमारे लिए (स्वस्ति) सुख को धारण करता है; वह तुम्हारे लिए भी सुख को धारण करे ॥ २५ । १९॥
भावार्थ - मनुष्य जैसे अपने लिए सुख चाहें वैसे दूसरों के लिए भी सुख की कामना करें। जैसे कोई भी व्यक्ति अपने लिए दुःख नहीं चाहता वैसे दूसरों के लिए भी दुःख की कामना न करें ॥ २५ । १९॥
प्रमाणार्थ -
(तार्क्ष्य:) अश्व इव । 'तार्क्ष्य' यह पद निघं० (१ । १४) में अश्व-नामों में पठित है। (अरिष्टनेमिः) यहाँ 'अरिष्ट' उपपद 'णीञ् प्रापणे' धातु से औणादिक 'मि' प्रत्यय है ।
भाष्यसार - मनुष्य किसकी इच्छा करें--सब मनुष्य ऐसी कामना करें कि जो ईश्वर बड़े विज्ञान वाला, परम ऐश्वर्यवान्, सकल जगत् रूप धन वाला, सब ओर से पोषक, घोड़े के समान सुखों का प्रापक, महत्तत्त्व आदि का स्वामी अर्थात् पालक है वह हमारे लिए तथा तुम्हारे लिए भी सुख को धारण करे। मनुष्य जैसे अपने लिए सुख की कामना करें वैसे अन्यों के लिए भी सुख की कामना किया करें। जैसे कोई मनुष्य अपने लिए दुःख की कामना नहीं करता वैसे अन्यों के लिए भी दुःख की कामना न करें ॥ २५ । १९॥
विशेष - 'स्वस्ति नः इन्द्रो०'महर्षि ने इस मन्त्र का विनियोग स्वस्तिवाचन में संस्कारविधि में किया है॥
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