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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाज ऋषिः देवता - गृहपतयो देवताः छन्दः - निचृत् आर्षी अनुष्टुप्, स्वरः - गान्धारः
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    उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽसि॒ हरि॑रसि हारियोज॒नो हरि॑भ्यां त्वा। हर्यो॑र्धा॒ना स्थ॑ स॒हसो॑मा॒ऽइन्द्रा॑य॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। हरिः॑। अ॒सि॒। हा॒रि॒यो॒ज॒न इति॑ हारिऽयोज॒नः। हरि॑ऽभ्या॒मिति॒ हरि॑ऽभ्याम्। त्वा॒। हर्य्योः॑। धा॒नाः। स्थ॒। स॒हसो॑मा इति॑ स॒हऽसो॑माः। इन्द्रा॑य ॥११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपयामगृहीतोसि हरिरसि हारियोजनो हरिभ्यान्त्वा । हर्यार्धाना स्थ सहसोमा इन्द्राय ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। हरिः। असि। हारियोजन इति हारिऽयोजनः। हरिऽभ्यामिति हरिऽभ्याम्। त्वा। हर्य्योः। धानाः। स्थ। सहसोमा इति सहऽसोमाः। इन्द्राय॥११॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 11
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    भाषार्थ -
    हे पते ! आप (उपयामगृहीतः) मुझसे गृहाश्रम के लिये स्वीकार किये गये (असि) हो, और (हारियोजनः) घोड़ों को रथ में जोड़नेवाले सारथि के समान (हरिः) यथायोग्य गृहाश्रम के व्यवहारों को वहन करने वाले (असि) हो, इसलिये (हरिभ्याम्) प्रशिक्षित घोड़ों से युक्त रथ में विराजमान (त्वा) आपकी मैं (सेवे) सेवा करती हूँ । आप गृहाश्रमी बनकर (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए (सहसोमाः) श्रेष्ठ गुणों से युक्त होकर (हर्योः) घोड़ों को (धानाः) धारण करने वाले (स्थ) बनो ॥८ । ११ ।।

    भावार्थ - ब्रह्मचर्य से पवित्र हुये विवाह की इच्छुक युवती कन्यायें और युवक कुमार परस्पर धनसम्पत्ति की परीक्षा करके विवाह करें, नहीं तो धन के अभाव में दुःख की ही वृद्धि होती है। इस प्रकार विवाह करके परस्पर आनन्द को प्राप्त होकर ऐश्वर्य को बढ़ावें ।। ८ । ११ ।।

    भाष्यसार - पत्नी गृहाश्रम के लिये पति को स्वीकार करे। जैसे सारथी रथ में घोड़ों को युक्त करता है तथा अपने गन्तव्य को प्राप्त करता है वैसे पति यथायोग्य गृहाश्रम के व्यवहारों को प्राप्त करने वाला हो। पत्नी सुशिक्षित अश्वों से भूषित रथ में विराजमान अपने पति को प्राप्त करे अर्थात् ब्रह्मचर्य से पवित्र होकर विवाह के इच्छुक युवा और युवतियाँ परस्पर धन की परीक्षा करके विवाह करें क्योंकि धन के अभाव में गृहाश्रम में दुःख की ही वृद्धि होती है। गृहाश्रमी लोग परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये श्रेष्ठ गुणों से युक्त होकर अश्वों को धारण करने वाले हों। स्त्री-पुरुष परस्पर आह्लाद को प्राप्त होकर प्रतिदिन ऐश्वर्य की वृद्धि किया करें ॥ ८ । ११ ।।

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