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  • यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - आदित्यो गृहपतिर्देवताः छन्दः - निचृत् जगती स्वरः - निषादः
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    य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृड॒यन्तः॑। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्याद॒ꣳहोश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑दादि॒त्येभ्य॑स्त्वा॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञः। दे॒वाना॑म्। प्रति॑। ए॒ति॒। सु॒म्नम्। आदि॑त्यासः। भव॑त। मृ॒ड॒यन्तः॑। आ। वः॒। अ॒र्वाची॑। सु॒म॒तिरिति॑ सुऽम॒तिः। व॒वृ॒त्या॒त्। अ॒होः। चि॒त्। या। व॒रि॒वो॒वित्त॒रेति॑ वरिवो॒वित्ऽत॑रा। अस॑त्। आ॒दि॒त्येभ्यः। त्वा॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो देवानाम्प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृडयन्तः । आ वोर्वाची सुमतिर्ववृत्यादँहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासदादित्येभ्यस्त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञः। देवानाम्। प्रति। एति। सुम्नम्। आदित्यासः। भवत। मृडयन्तः। आ। वः। अर्वाची। सुमतिरिति सुऽमतिः। ववृत्यात्। अहोः। चित्। या। वरिवोवित्तरेति वरिवोवित्ऽतरा। असत्। आदित्येभ्यः। त्वा॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 8; मन्त्र » 4
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    भाषार्थ -
    हे (आदित्यासः) सूर्य के समान विद्यादि शुभ गुणों से प्रकाशमान विद्वानो ! आप लोग और (व:) आप (देवानाम्) विद्वानों का जो गृहाश्रम नामक (यज्ञः) स्त्री-पुरुष के द्वारा प्राप्त करने योग्य जो यज्ञ है वह (सुम्नम्) सुख को (प्रति+एति) प्राप्त कराता है। और जो (अंहो:) सुखदायक गृहाश्रम के व्यवहार की (वरिवोवित्तरा) सत्य व्यवहार को जानने का अत्युत्तम साधन रूप (सुमतिः) श्रेष्ठ बुद्धि है वह (आववृत्यात्) सदा वर्तमान रहे। और-- जो (त्वा) आपको (आदित्येभ्यः) सब महीनों से सम्बन्धित उत्तम विद्या और शिक्षा प्राप्त (असत्) है उससे (चित्) भी अथवा युक्ति से (वाम्) स्त्री-पुरुष को सदा (मृडयन्तः) सुखी रखो । ८।४॥

    भावार्थ - स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि वेविवाह करके प्राप्त विद्वानों के संग से, जिस-जिस कर्म से विद्या, सुशिक्षा, बुद्धि, मित्रता और परोपकार की वृद्धि हो वैसा करें॥८।४ ॥

    भाष्यसार - १. गृहाश्रम-- सूर्य के समान विद्या आदि गुणों से प्रकाशमान गृहस्थ लोग प्राप्त विद्वानों के संग से सुखदायक गृहाश्रम रूप यज्ञ का अनुष्ठान करें। सुख के प्रापक गृहाश्रम के सत्य व्यवहार को जनाने वाली सुमति=विद्या और सुशिक्षा हैं। और जो उत्तम विद्या और शिक्षा प्राप्त हो उससे तथा अपनी युक्ति से भी सबको सुखी करो। गृहाश्रम रूप यज्ञ से विद्या, सुशिक्षा, बुद्धि, मित्रता और परोपकार को बढ़ाओ । २. गृहपति लोग विद्या आदि शुभ गुणों से सूर्य के समान प्रकाशमान रहें (आदित्य) ।। ८ । ४ ।।

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