यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 42
ऋषिः - कुसुरुविन्दुर्ऋषिः
देवता - पत्नी देवता
छन्दः - स्वराट ब्राह्मी उष्णिक्,
स्वरः - ऋषभः
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आजि॑घ्र क॒लशं॑ म॒ह्या त्वा॑ विश॒न्त्विन्द॑वः। पुन॑रू॒र्जा निव॑र्त्तस्व॒ सा नः॑ स॒हस्रं॑ धुक्ष्वो॒रुधा॑रा॒ पय॑स्वती॒ पुन॒र्मावि॑शताद् र॒यिः॥४२॥
स्वर सहित पद पाठआ। जि॒घ्र॒। क॒लश॑म्। म॒हि॒। आ। त्वा॒। वि॒श॒न्तु॒। इन्द॑वः। पुनः॑। ऊ॒र्जा। नि। व॒र्त्त॒स्व॒। सा। नः॒। स॒हस्र॑म्। धु॒क्ष्व॒। उ॒रुधा॒रेत्यु॒रुऽधा॑रा। पय॑स्वती। पुनः॑। मा॒। आ। वि॒श॒ता॒त्। र॒यिः ॥४२॥
स्वर रहित मन्त्र
आजिघ्र कलशम्मह्या त्वा विशन्त्विन्दवः पुनरूर्जा निवर्तस्व सा नः सहस्रन्धुक्ष्वोरुधारा पयस्वती पुनर्माविशताद्रयिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
आ। जिघ्र। कलशम्। महि। आ। त्वा। विशन्तु। इन्दवः। पुनः। ऊर्जा। नि। वर्त्तस्व। सा। नः। सहस्रम्। धुक्ष्व। उरुधारेत्युरुऽधारा। पयस्वती। पुनः। मा। आ। विशतात्। रयिः॥४२॥
विषय - अब गृहस्थ के कर्म्म में पत्नी विषयक उपदेश किया जाता है ।।
भाषार्थ -
हे (महि) महान् गुणों से युक्त (पत्नि) पत्नी ! जो तू (उरुधारा) विद्या और उत्तम शिक्षा को धारण करने वाली तथा (पयस्वती) प्रशंसनीय अन्न वा जलों वाली (असि) है, सो तू गृहस्थ के कार्यों में (कलशम्) नवीन घड़े का (आजिघ्र) उपयोग कर, फिर (त्वा) तुझे (सहस्रम्) असंख्य (इन्दवः) सोम आदि औषधियों के रस (आविशन्तु) प्राप्त हों, (पुनः) फिर (ऊर्जा) बल पराक्रम से (नः) हमें (धुक्ष्व) परिपूर्ण कर, (पुनः) फिर (मा) मुझे (रयिः) धन (आविशतात्) प्राप्त हो जिससे तू दुःख से (निवर्त्तस्व) दूर रहे ॥ ८ । ४२ ॥
भावार्थ - विदुषी स्त्रियों को योग्य है कि वे जैसे सुपरीक्षित पदार्थ स्वयं सेवन करें वैसे ही अपने पति को देवें, जिससे बुद्धि, बल और विद्या की वृद्धि होवे ।और धन आदि पदार्थों की भी उन्नति करें।। ८ । ४२ ।।
प्रमाणार्थ -
इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४ । ५ । ८ । ६-९) में की गई है ॥ ८ । ४२ ॥
भाष्यसार - गृहस्थ कर्म में पत्नी विषयक उपदेश--पति अपनी पत्नी से कहता है कि हे पत्नि ! तू महान् गुणों से युक्त है, विद्या और सुशिक्षा को तूने धारण किया है, प्रशस्त अन्न-जल निर्माण की विद्या को जानती है, इसलिये गृहस्थ के कार्यों में तू नवीन कलश (घड़ा) को सूंघ अर्थात् सब पदार्थों की परीक्षा कर। परीक्षा करके कलशों में नाना सोम आदि रसों को डाल। उनके सेवन से बुद्धि, बल, पराक्रम और विद्या की वृद्धि कर। पत्नी को उचित है कि वह जैसे पदार्थ स्वयं खाये-पीवे वैसे ही पति को भी खाने के लिये दिया करे। पति और पत्नी दोनों धन आदि पदार्थों की उन्नति करें जिससे दुःखों की निवृत्ति होवे ।। ८ । ४२ ॥
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