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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 5
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो॑भि॒र्वि श्लोक॑ऽएतु प॒थ्येव सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ऽअ॒मृत॑स्य पु॒त्राऽआ ये धामा॑नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒जे। वा॒म्। ब्रह्म॑। पू॒र्व्यम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। वि। श्लोकः॑। ए॒तु॒। प॒थ्ये᳖वेति॑ प॒थ्या᳖ऽइव। सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। अ॒मृत॑स्य। पु॒त्राः। आ। ये। धामा॑नि। दि॒व्यानि॑। त॒स्थुः ॥५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युजे वाम्ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्वि श्लोक एतु पथ्येव सूरेः । शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युजे। वाम्। ब्रह्म। पूर्व्यम्। नमोभिरिति नमःऽभिः। वि। श्लोकः। एतु। पथ्येवेति पथ्याऽइव। सूरेः। शृण्वन्तु। विश्वे। अमृतस्य। पुत्राः। आ। ये। धामानि। दिव्यानि। तस्थुः॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 5
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    भावार्थ - या मंत्रात उपमालंकार आहे. योगाचा अभ्यास करणाऱ्या लोकांनी योगकुशल विद्वानांची संगती धरावी. त्यांच्या संगतीने योगविधी जाणून ब्रह्मज्ञानाचा अभ्यास करावा. ज्याप्रमाणे विद्वानांचा मार्ग सर्वांना सुखकारक असतो त्याप्रमाणेच योगाभ्यासींच्या संगतीने योगक्रिया सहज प्राप्त करता येते. कोणताही जीवात्मा अशी संगती व ब्रह्मज्ञान याशिवाय पवित्र होत नाही व सर्व सुख प्राप्त करू शकत नाही. त्यासाठी योगविधीनेच सर्व माणसांनी परमेश्वराची उपासना करावी.

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