यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 5
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सविता देवता
छन्दः - भुरिक्पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
186
यु॒जे वां॒ ब्रह्म॑ पू॒र्व्यं नमो॑भि॒र्वि श्लोक॑ऽएतु प॒थ्येव सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॒ विश्वे॑ऽअ॒मृत॑स्य पु॒त्राऽआ ये धामा॑नि दि॒व्यानि॑ त॒स्थुः॥५॥
स्वर सहित पद पाठयु॒जे। वा॒म्। ब्रह्म॑। पू॒र्व्यम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। वि। श्लोकः॑। ए॒तु॒। प॒थ्ये᳖वेति॑ प॒थ्या᳖ऽइव। सू॒रेः। शृ॒ण्वन्तु॑। विश्वे॑। अ॒मृत॑स्य। पु॒त्राः। आ। ये। धामा॑नि। दि॒व्यानि॑। त॒स्थुः ॥५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
युजे वाम्ब्रह्म पूर्व्यं नमोभिर्वि श्लोक एतु पथ्येव सूरेः । शृण्वन्तु विश्वेऽअमृतस्य पुत्राऽआ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
युजे। वाम्। ब्रह्म। पूर्व्यम्। नमोभिरिति नमःऽभिः। वि। श्लोकः। एतु। पथ्येवेति पथ्याऽइव। सूरेः। शृण्वन्तु। विश्वे। अमृतस्य। पुत्राः। आ। ये। धामानि। दिव्यानि। तस्थुः॥५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मनुष्याः परब्रह्मप्राप्तिं कथं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे योगजिज्ञासवो जनाः! भवन्तो यथा श्लोकोऽहं नमोभिर्यत्पूर्व्यं ब्रह्म युजे, तद्वां सूरेः पथ्येव व्येतु। यथा विश्वे पुत्राः प्राप्तमोक्षा विद्वांसोऽमृतस्य योगेन दिव्यानि धामान्यातस्थुस्तेभ्य एतां योगविद्यां शृण्वन्तु॥५॥
पदार्थः
(युजे) आत्मनि समादधे (वाम्) युवयोर्योगानुष्ठात्रुपदेशकयोः सकाशाच्छ्रुतवन्तौ (ब्रह्म) बृहद् व्यापकम् (पूर्व्यम्) पूर्वैर्योगिभिः प्रत्यक्षीकृतम् (नमोभिः) सत्कारैः (वि) विविधेऽर्थे (श्लोकः) सत्यवाक्संयुक्तः (एतु) प्राप्नोतु (पथ्येव) यथा पथि साध्वी गतिः (सूरेः) विदुषः (शृण्वन्तु) (विश्वे) सर्वे (अमृतस्य) अविनाशिनो जगदीश्वरस्य (पुत्राः) सुसन्ताना आज्ञापालका इव (आ) (ये) (धामानि) स्थानानि (दिव्यानि) दिवि सुखप्रकाशे भवानि (तस्थुः) आस्थितवन्तः। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.१.१७ व्याख्यातः]॥५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। योगं जिज्ञासुभिराप्ता योगारूढा विद्वांसः सङ्गन्तव्याः। तत्सङ्गेन योगविधिं विज्ञाय ब्रह्माभ्यसनीयम्। यथा विद्वत्प्रकाशितो धर्ममार्गः सर्वान् सुखेन प्राप्नोति, तथैव कृतयोगाभ्यासानां सङ्गाद्योगविधिः सहजतया प्राप्नोति, नहि कश्चिदेतत्सङ्गमकृत्वा ब्रह्माभ्यासेन विनाऽऽत्मा पवित्रो भूत्वा सर्वं सुखमश्नुते। तस्माद् योगविधिना सहैव सर्वे परं ब्रह्मोपासताम्॥५॥
हिन्दी (4)
विषय
मनुष्य लोग ईश्वर की प्राप्ति कैसे करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे योगशास्त्र के ज्ञान की इच्छा करने वाले मनुष्यो! आप लोग जैसे (श्लोकः) सत्य वाणी से संयुक्त मैं (नमोभिः) सत्कारों से जिस (पूर्व्यम्) पूर्व के योगियों ने प्रत्यक्ष किये (ब्रह्म) सब से बड़े व्यापक ईश्वर को (युजे) अपने आत्मा में युक्त करता हूँ, वह ईश्वर (वाम्) तुम योग के अनुष्ठान और उपदेश करने हारे दोनों को (सूरेः) विद्वान् का (पथ्येव) उत्तम गति के अर्थ मार्ग प्राप्त होता है, वैसे (व्येतु) विविध प्रकार से प्राप्त होवे। जैसे (विश्वे) सब (पुत्राः) अच्छे सन्तानों के तुल्य आज्ञाकारी मोक्ष को प्राप्त हुए विद्वान् लोग (अमृतस्य) अविनाशी ईश्वर के योग से (दिव्यानि) सुख के प्रकाश में होने वाले (धामानि) स्थानों को (आतस्थुः) अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं, वैसे मैं भी उनको प्राप्त होऊं॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। योगाभ्यास के ज्ञान को चाहने वाले मनुष्यों को चाहिये कि योग में कुशल विद्वानों का सङ्ग करें। उन के सङ्ग से योग की विधि को जान के ब्रह्मज्ञान का अभ्यास करें। जैसे विद्वान् का प्रकाशित किया हुआ धर्म मार्ग सब को सुख से प्राप्त होता है, वैसे ही योगभ्यासियों के सङ्ग से योगविधि सहज में प्राप्त होती है। कोई भी जीवात्मा इस सङ्ग और ब्रह्मज्ञान के अभ्यास के विना पवित्र होकर सब सुखों को प्राप्त नहीं हो सकता, इसीलिये उस योगविधि के साथ ही सब मनुष्य परब्रह्म की उपासना करें॥५॥
पदार्थ
पदार्थ = ईश्वर की उपासना का उपदेष्टा गुरु और उसका ग्रहण करनेवाला शिष्य, इन दोनों के प्रति परमेश्वर का उपदेश है कि ( पूर्व्यम् ब्रह्म ) = मैं सनातन ब्रह्म ( वाम् ) = आप गुरु-शिष्य दोनों को ( युजे ) = उपासना में जोड़ता हूँ, ( नमोभिः ) = नमस्कारों से ( विश्लोकः ) = विविध कीर्ति ( एतु ) = प्राप्त हो, ( इव ) = जैसे ( सूरे: ) = विद्वान् पुरुष को ( पथ्या ) = मार्ग प्राप्त होता है, ( ये विश्वे अमृतस्य पुत्राः ) = जो सब आप लोग, अमर जो मैं हूं उसके पुत्र हो, ( शृण्वन्तु ) = सुनो ( दिव्यानि धामानि ) = दिव्य लोकों अर्थात् मोक्ष सुखों को ( आ तस्थुः ) = [अधितिष्ठन्तु] प्राप्त होओ।
भावार्थ
भावार्थ = परम कृपालु परमात्मा, अपने भक्तों पर कृपा करते हुए कहते हैं— हे अमृत के पुत्रो ! मेरे वचन को बड़े प्रेम से सुनो। आप लोग मुझको बारम्बार नमस्कार करते और मेरा ही मन में ध्यान धरते हो, इस लोक में कीर्ति और शान्ति को प्राप्त होओ । मोक्ष के अनन्त दिव्य सुख भी, आप लोगों के लिए ही नियत हैं, उनको प्राप्त होकर सदा आनन्द में रहो ।
विषय
वाणी का श्रावण
पदार्थ
१. ( वाम् ) = तुम दोनों पति-पत्नी को ( नमोभिः ) = नमन के द्वारा ( पूर्व्यम् ) = सृष्टि से पहले होनेवाले [ अग्रे समवर्त्तत ] ( ब्रह्म ) = प्रभु से ( युजे ) = सङ्गत करता हूँ। प्रातः-सायं नमस् की उक्तियों के द्वारा तुम प्रभु के समीप पहुँचते हो।
२. इस प्रकार समीप पहुँचने पर ( सूरेः ) = उस उत्तम प्रेरणा देनेवाले ज्ञानी प्रभु की ( श्लोकः ) = छन्दोरूप वाणियाँ ( पथ्या इव ) = पथ-प्रदर्शिका के रूप में ( विएतु ) = तुम्हें विशिष्टरूप से प्राप्त हों। इन वाणियों में हम ‘जीवन-यात्रा को किस प्रकार चलाना’—इस बात का विविध रूपों में उपदेश पाते हैं।
३. ( विश्वे ) = सब ( अमृतस्य पुत्राः ) = उस अमृत प्रभु के पुत्र, अर्थात् उस अमृत पिता की भाँति ही विषयों के पीछे न मरनेवाले योगिजन ( शृण्वन्तु ) = इन वाणियों को सुनें। ये वाणियाँ विषयासक्त पुरुषों को सुनाई नहीं पड़तीं। इन्हें तो वही सुनते हैं ( ये ) = जो ( दिव्यानि धामानि ) = प्रकाशमय तेजों के ( आतस्थुः ) = अधिष्ठाता बनते हैं। विषय-व्यावृत्त होकर यदि हम नम्रता से उस प्रभु के चरणों में उपस्थित होते हैं तो उस प्रभु की प्रकाशमयी वाणियों को सुन पाते हैं। यह विषय-व्यावृत्ति हमें दिव्य तेजों का अधिष्ठाता बनाती है।
भावार्थ
भावार्थ — हम विषय-व्यावृत्त होकर उस अमृत पिता के अमृत पुत्र बनें, और उस पिता की प्रकाशमयी वाणियों को सुनें।
विषय
एकाग्र होकर ज्ञान का विचार और विद्वानों से ज्ञान का श्रवण ।
भावार्थ
भा०-हे स्त्री पुरुषो ! और हे गुरुशिष्यो ! हे राजा प्रजाजनो ! ( वार्म् ) आप दोनों के हित के लिये मैं विद्वान् पुरुष ( नमोभिः ) उत्तम आत्मा को विनय सिखानेवाले उपायों द्वारा, ( पूर्व्यं ब्रह्म ) पूर्ण योगिजनों, ऋषियों से साक्षात् किये गये (ब्रह्म) ब्रह्मज्ञान को, वेद को या परमेश्वर को ( युजे ) अपने चित्त में एकाग्र होकर साक्षात् करूं और आप लोगों को उसका उपदेश करूं । वह ( श्लोकः ) सत्यवाणी से युक्त, वेद ज्ञान अथवा सत्य ज्ञान से युक्त, विद्वान् अथवा ( सूरः श्लोकः ) सूर्य के समान विद्वान् का वह ( श्लोकः) ज्ञानोपदेश ( वां ) आप दोनों के लिये पथ्या इव ) उत्तम मार्ग के समान (वि एतु) विविध उद्देश्यों तक पहुंचे ( ये ) जो ( दिव्यानि ) दिव्य ज्ञानमय ( धामानि ) तेजों, प्रकाशों को या उच्च स्थानों, पदों को ( आतस्थुः ) प्राप्त हैं उन लोगों से हे ( विश्वे पुत्राः ) समस्त पुत्रजनो ! आप लोग ( अमृतस्य ) उस अमृतस्वरूप परमेश्वरविषयक ज्ञान का ( श्रण्वन्तु ) श्रवण करो ॥ शत०६।२।३।१७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सविता ऋषिः । सविता देवता ।विराडार्षी । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. योगाचा अभ्यास करणाऱ्या लोकांनी योगकुशल विद्वानांची संगती धरावी. त्यांच्या संगतीने योगविधी जाणून ब्रह्मज्ञानाचा अभ्यास करावा. ज्याप्रमाणे विद्वानांचा मार्ग सर्वांना सुखकारक असतो त्याप्रमाणेच योगाभ्यासींच्या संगतीने योगक्रिया सहज प्राप्त करता येते. कोणताही जीवात्मा अशी संगती व ब्रह्मज्ञान याशिवाय पवित्र होत नाही व सर्व सुख प्राप्त करू शकत नाही. त्यासाठी योगविधीनेच सर्व माणसांनी परमेश्वराची उपासना करावी.
विषय
मनुष्यांनी ईश्वराची प्राप्ती कशाप्रकारे करावी, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे योगशास्त्राचे जिज्ञासूजन हो, जसे मी (एक विद्वान योगी) (श्लोक:) सत्यवाणीद्वारे आणि (नमोभि:) सत्काराद्वारे (आदर व पूज्यभाव ठेऊन) (पूर्न्यम्) पूर्वी झालेल्या योग्यांनी साक्षात केलेल्या (पद्धतीने) (ब्रहन) सर्वेश्वर परमात्म्याला (युजे) आपल्या आत्म्याशी संयुक्त करतो, तसेच (वाम्) तुम्हां दोघांना म्हणजे योगानुष्ठान करणारी आणि उपदेश देणारा (सूरे:) अशा दोघा विद्वानांना (पथ्येव) उत्तमगति प्राप्त करण्यासाठी (मोक्ष- प्राप्तीसाठी) तो परमेश्वर प्राप्त होऊ शकतो, तो (व्येतु) तुम्हास देखील विविध प्रयत्नांनी प्राप्त होवो. (अशी मी कामना करतो) तसचे ज्याप्रमाणे (पुत्रा:) श्रेष्ठ संतानाप्रमाणे आज्ञाकारी होऊन मोक्षप्राप्तीसाठी (विश्वे) सर्व विद्वान लोक (अमृतस्य) अविनाशी ईश्वराच्या संबंधाने (दिव्यानि) सुखदायक अशा (धामानि) स्थानास (मोक्षास) (आतुस्थु:) प्राप्त होतात, त्याप्रमाणे मी ही त्या (मोक्षसाधक विद्वानास मोक्षप्राप्तीसाठी) प्राप्त व्हावे (त्यांचा संग करावा) ॥5॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. योगाभ्यासाविषयी जिज्ञासू असणार्या लोकांनी योगविद्येत कुशल असलेल्या जनांची संगती धरावी. त्यांच्या संगाने योगविधीचे ज्ञान प्राप्त करून ब्रह्मविद्येचा अभ्यास करावा. ज्याप्रमाणे विद्वानाने दाखविलेल्या मार्गाने गेल्यास सर्व जण सुखी होतात, त्याप्रमाणे योगाभ्यासींच्या संगतीमुळे योगविधीचे ज्ञान सहजतेने प्राप्त होते. कोणीही जीवात्मा अशा संगतीशिवाय आणि ब्रह्मज्ञानाशिवाय पवित्र होऊ शकत नाही आणि पवित्र झाल्याशिवाय त्यास सुख लाभणार नाही. यामुळे सर्व मनुष्यांनी योगविधी बरोबरच परब्रह्माची उपासना अवश्य केली पाहिजे. ॥5॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O seekers after yoga, I, wedded to truth, unite my soul with God, realised by past sages through prayer and meditation. May that God be realised by ye both through diverse efforts, just as a learned person finds the true path and sticks to it. All noble souls should listen to yoga vidya, so that they may acquire salvation and reach regions full of joys.
Meaning
I join, and join you both, with the eternal lord of the universe with hymns of praise and prayer as did the yogis of old. May our song of prayer reach its divine destination by the sure path of the great and the wise seers. Listen all ye children of Immortality who inhabit the holy worlds of the Lord’s creation and join to reach the goal.
Translation
I unite both of you (disciple and the teacher) with the praises of the traditional knowledge. May this fame of the learned one spread around like the pathways. Let all the sons of the immortal one, who are occupying the positions of learning, hear it. (1)
Notes
Taken from Rgveda V. 10. 13. According to Mahidhara this mantra is addressed to the sacrificer and his wife. Dayananda thinks it is addressed to teacher and disciple. Yuje уаm, I unite both of you. Brahma, knowledge; God supreme; prayer. According to Mabidhara, brahma here means рranah, i. e. vital airs, which are called seven rsis also. Sloka, fame. Süreh, पंडितस्य, of the learned one. Amrtasya putrah, sons of the immortal one, the supreme God; sons of Prajapati, the immortal one. (Mahidhara).
बंगाली (2)
विषय
মনুষ্যাঃ পরব্রহ্মপ্রাপ্তিং কথং কুর্য়্যুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
মনুষ্যগণ ঈশ্বর প্রাপ্তি কেমন ভাবে করিবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে যোগশাস্ত্র জ্ঞানেচ্ছুক মনুষ্যগণ ! আপনার যেমন (শ্লোকঃ) সত্যবাণী সংযুক্ত (নমোভিঃ) সৎকার দ্বারা যাহা (পূর্ব্যম্) পূর্বের যোগিগণ প্রত্যক্ষ করিয়াছেন (ব্রহ্ম) সর্বাপেক্ষা ব্যাপক ঈশ্বরকে (য়ুজে) আমি স্বীয় আত্মা সহ যুক্ত করি । সেই ঈশ্বর (বাম্) তোমরা যোগানুষ্ঠান এবং উপদেশকারী উভয়কে (সূরেঃ) বিদ্বানের (পথ্যেব) উত্তম গত্যার্থ মার্গ প্রাপ্ত হয় সেইরূপ (ব্যেতু) বিবিধ প্রকারে প্রাপ্ত হও । যেমন (বিশ্বে) সকল (পুত্রাঃ) সুসন্তান তুল্য আজ্ঞাকারী মোক্ষপ্রাপ্ত বিদ্বান্গণ (অমৃতস্য) অবিনাশী ঈশ্বরের যোগ দ্বারা (দিব্যানি) সুখে প্রকাশিত (ধামানি) স্থানগুলিকে (আতস্থুঃ) সম্যক্ প্রকার প্রাপ্ত হন সেইরূপ আমরাও প্রাপ্ত হই ॥ ৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । যোগাভ্যাস জ্ঞানেচ্ছুক ব্যক্তির উচিত যে, যোগে কুশল বিদ্বান্দিগের সঙ্গ করিবে । তাহাদের সঙ্গ দ্বারা যোগের বিধি অবগত হইয়া ব্রহ্মজ্ঞানের অভ্যাস করিবে । যেমন বিদ্বান্দিগের দ্বারা প্রকাশিত ধর্ম মার্গ দ্বারা সকলের সুখলাভ হয় সেইরূপ যোগাভ্যাসীর সঙ্গ দ্বারা যোগবিধি সহজেই প্রাপ্ত হয় । কোন জীবাত্মা এই সঙ্গ এবং ব্রহ্মজ্ঞানের অভ্যাস ব্যতীত পবিত্র হইয়া সব সুখ প্রাপ্ত করিতে পারে না এইজন্য সেই যোগবিধি সহ সকল মনুষ্য পরব্রহ্মের উপাসনা করিবে ॥ ৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
য়ু॒জে বাং॒ ব্রহ্ম॑ পূ॒র্ব্যং নমো॑ভি॒র্বি শ্লোক॑ऽএতু প॒থ্যে᳖ব সূ॒রেঃ ।
শৃ॒ণ্বন্তু॒ বিশ্বে॑ऽঅ॒মৃত॑স্য পু॒ত্রাऽআ য়ে ধামা॑নি দি॒ব্যানি॑ ত॒স্থুঃ ॥ ৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
য়ুজে বামিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সবিতা দেবতা । ভুরিক্পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
যুজে বাং ব্রহ্ম পূর্ব্যং নমোভির্বিশ্লোক এতু পথ্যেব সূরেঃ।
শৃণ্বন্তু বিশ্বে অমৃতস্য পুত্রা আয়ে ধামানি দিব্যানি তস্থুঃ।।৪৯।।
(যজু ১১।৫)
পদার্থঃ ঈশ্বরের উপাসনার উপদেষ্টা গুরু এবং সেই উপদেশ গ্রহণকারী শিষ্য -এই দুজনের প্রতি পরমেশ্বরের উপদেশ হচ্ছে, (পূর্ব্যম্ ব্রহ্ম) আমি সনাতন ব্রহ্ম (বাম্) তোমাদের গুরু-শিষ্য দুজনকেই (যুজে) উপাসনাতে যুক্ত করছি। (নমোভিঃ) নমস্কার দ্বারা (বিশ্লোক) বিবিধ কীর্তি (এতু) প্রাপ্ত হোক, (ইব) যেমন (সূরেঃ) বিদ্বান ব্যক্তির (পথ্যা) মার্গ প্রাপ্ত হয়। (যে বিশ্বে অমৃতস্য পুত্রাঃ) তোমরা আমার অর্থাৎ অমৃতের সন্তান। (শৃণ্বন্তু) শোনো, (দিব্যানি ধামানি) দিব্য লোক অর্থাৎ মোক্ষ সুখের (আতস্থুঃ) প্রাপ্তি হও।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ পরম কৃপালু পরমাত্মা নিজ ভক্তদের কৃপাপূর্বক বলছেন, হে আমার অর্থাৎ অমৃতের সন্তানগণ! আমার বাণী ভক্তিভরে শোনো। তোমরা আমাকেই বারংবার নমস্কার করো, আমার ধ্যান করো। এই লোকে কীর্তি এবং শান্তির প্রাপ্তি ঘটবে। মোক্ষস্বরূপ অত্যন্ত দিব্য সুখও তোমাদের প্রাপ্ত হবে, তা প্রাপ্ত হয়ে আনন্দে থাক।। ৪৯।।
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal