यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 17
ऋषिः - पुरोधा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
74
अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। अनु॒ सूर्य॑स्य पुरु॒त्रा च॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वीऽआत॑तन्थ॥१७॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑। अ॒ग्निः। उ॒षसा॑म्। अग्र॑म्। अ॒ख्य॒त्। अनु॑। अहा॑नि। प्र॒थ॒मः। जा॒तवे॑दा॒ इति॑ जा॒तऽवे॑दाः। अनु॑। सूर्य॑स्य। पु॒रु॒त्रेति॑ पुरु॒ऽत्रा। च॒। र॒श्मीन्। अनु॑। द्यावा॑पृथि॒वीऽइति॒ द्यावा॑पृथि॒वी। आ। त॒त॒न्थ॒ ॥१७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः । अनु सूर्यस्य पुरुत्रा च रश्मीननु द्यावापृथिवीऽआततन्थ ॥
स्वर रहित पद पाठ
अनु। अग्निः। उषसाम्। अग्रम्। अख्यत्। अनु। अहानि। प्रथमः। जातवेदा इति जातऽवेदाः। अनु। सूर्यस्य। पुरुत्रेति पुरुऽत्रा। च। रश्मीन्। अनु। द्यावापृथिवीऽइति द्यावापृथिवी। आ। ततन्थ॥१७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वांसः किंवत्किं कुर्य्युरित्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे विद्वन्! त्वं यथा प्रथमो जातवेदा अग्निरुषसामग्रमहान्यन्वख्यत् सूर्य्यस्याग्रं पुरुत्रा रश्मीनन्वाततन्थ। द्यावापृथिवी च तथा विद्याव्यवहारानन्वातनुहि॥१७॥
पदार्थः
(अनु) (अग्निः) पावकः (उषसाम्) (अग्रम्) पूर्वम् (अख्यत्) प्रख्यातो भवति (अनु) (अहानि) दिनानि (प्रथमः) (जातवेदाः) यो जातेषु विद्यते स सूर्य्यः (अनु) (सूर्यस्य) (पुरुत्रा) बहून् (च) (रश्मीन्) (अनु) (द्यावापृथिवी) (आ) (ततन्थ) तनोति। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.३.६ व्याख्यातः]॥१७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा कारणकार्य्याख्यो विद्युदग्निरनुपूर्वं सवित्रुषोदिनानि कृत्वा पृथिव्यादीनि प्रकाशयति, तथा विद्वद्भिः सुशिक्षां कृत्वा ब्रह्मचर्य्यविद्याधर्माऽनुष्ठानसुशीलानि सर्वत्र प्रचार्य सर्वे ज्ञानानन्दाभ्यां प्रकाशनीयाः॥१७॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वान् लोग किस के समान क्या करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! आप जैसे (प्रथमः) (जातवेदाः) उत्पन्न हुए पदार्थों में पहिले ही विद्यमान सूर्य्यलोक और (अग्निः) अग्नि (उषसाम्) उषःकाल से (अग्रम्) पहिले ही (अहानि) दिनों को (अन्वख्यत्) प्रसिद्ध करता है (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (अग्रम्) पहिले (पुरुत्रा) बहुत (रश्मीन्) किरणों को (अन्वाततन्थ) फैलाता (द्यावापृथिवी च) तथा सूर्य्य और पृथिवी लोक को प्रसिद्ध करता है, वैसे विद्या के व्यवहारों की प्रवृत्ति कीजिये॥१७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे कारण रूप विद्युत् और कार्य्यरूप प्रसिद्ध अग्नि क्रम से सूर्य्य, उषःकाल और दिनों को उत्पन्न करके पृथिवी आदि पदार्थों को प्रकाशित करते हैं, वैसे ही विद्वानों को चाहिये कि सुन्दर शिक्षा दे ब्रह्मचर्य्य विद्या धर्म्म के अनुष्ठान और अच्छे स्वभाव आदि का सर्वत्र प्रचार करके सब मनुष्यों को ज्ञान और आनन्द से प्रकाशयुक्त करें॥१७॥
विषय
‘पुरोधाः’ का दैनिक कार्यक्रम
पदार्थ
प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि ‘पुरोधाः’ है, जो औरों से पहले अपना धारण करता है। ‘यह अपने को अग्रभाग में कैसे स्थापित कर पाया है’, इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्र में देते हैं कि १. यह ( अग्निः ) = निरन्तर अपने को आगे और आगे प्राप्त करानेवाला व्यक्ति ( उषसाम् अग्रम् अनु ) = उषा के अग्रभागों के साथ-साथ, अर्थात् प्रत्येक उषाकाल के प्रारम्भ में ( अख्यत् ) = उस प्रभु के गुणों का प्रकथन करता है। [ ख्या प्रकथने ]। इसका दैनिक कार्यक्रम प्रभु-गुण स्मरण से प्रारम्भ होता है।
२. ( अहानि अनु ) = प्रत्येक दिन के साथ, अर्थात् प्रतिदिन यह ( प्रथमः ) = [ प्रथ विस्तारे ] अपनी शक्तियों का विस्तार करता है, शक्ति-विस्तार के लिए यह प्रतिदिन के व्यायाम आदि को नियम से करता है।
३. ( जातवेदाः ) = प्रत्येक उत्पन्न पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न करता है। नैत्यिक स्वाध्याय से यह अपने ज्ञान को बढ़ाता चलता है। एवं, प्रभु-स्तवन, व्यायामादि व स्वाध्याय तो यह सूर्योदय से पहले ही कर लेता है ( च ) = और ४. ( सूर्यस्य रश्मीन् अनु ) = सूर्य की रश्मियों के ख़ूब फैलने के साथ ( पुरुत्रा ) = यह बहुत ही स्थानों पर जाता है। जीविकोपार्जन के लिए यह विविध स्थानों पर आता-जाता है, परन्तु यह ध्यान रखता कि कहीं इसके मस्तिष्क व शरीर पर अवाञ्छनीय प्रभाव न हो जाए।
५. जीविकोपार्जन के अपने प्रयत्नों को यह ( आततन्थ ) = विस्तृत तो करता है, परन्तु ( द्यावापृथिवी अनु ) = अपने मस्तिष्क व शरीर के स्वास्थ्य का ध्यान करते हुए। इनके स्वास्थ्य के साथ-साथ यह धनार्जन करने का विचार करता है। कार्य को इतना नहीं फैला देता कि उसके न सँभलने से वह इसकी सिरदर्दी का ही कारण बन जाए।
भावार्थ
भावार्थ — १. उषा के प्रारम्भ से पहले ही उठकर यह प्रभु-कीर्तन करता है। २. उचित व्यायाम करता है। ३. प्रभु के बनाये पदार्थों की रचना का ज्ञान प्राप्त करता है जिससे इनमें प्रभु की महिमा को देखे और इन पदार्थों का ठीक प्रयोग कर सके। ४. अब आजीविका के लिए कर्म में लगता है। ५. कार्य को इतना नहीं फैला लेता कि यह उसके मस्तिष्क की चिन्ताओं का कारण बन जाए और शरीर को दूषित कर दे।
विषय
सूर्य और विद्वान की तुलना ।
भावार्थ
( अग्नि: ) महान् अग्नि ( प्रथम ) सब से प्रथम ( जातवेदाः ) विद्यमान, ज्ञानवान् परमेश्वर ही ( उषसाम् ) उषाओं के ( अग्रम्) अग्र, मुख्य भाग सूर्य को भी ( अख्यत् ) प्रकाशित करता है। ( अनु ) उसके पीछे स्वयं सूर्य तदनुसार अन्य उत्कृष्ट विद्वान् पुरुष भी व्यवहारों को प्रकाशित करें। ( अनु अहानि अख्यत् ) वही परमेश्वर दिनों को प्रकाशित करता है । ( सूर्यस्य ) वही सूर्य की ( पुरुत्रा ) बहुतसी (रश्मीनू) रश्मे, किरणों को भी प्रकाशित करता है ( अनु ) वही ( द्यावा पृथिवी ) आकाश और पृथिवी को भी ( आततन्थ ) सर्वत्र विस्तृत करता है । उसी प्रकार राष्ट्र में (प्रथमः जातवेदाः) सब से श्रेष्ठ विद्वान् पुरुष भी ( उषसाम् अग्रम् ) उदय कालों को प्रकाशित कर ( अहानि ) प्राप्त दिनों को प्रकाशित करे । ( सूर्यस्य पुरुत्रा रश्मीनू ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा के नाना प्रबन्ध व्यवस्थाओं और कार्यों को प्रकाशित करे। वह ( द्यावा पृथिवी ) राजा प्रजा दोनों की वृद्धि करे || शत० ६ । ३ । ३ । ६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरोधस ऋषयः । अग्निदेवता । निचृद् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे कारणरूप विद्युत व कार्यरूप अग्नी क्रमाने सूर्य, उषःकाल व दिवस उत्पन्न करून पृथ्वी इत्यादी पदार्थांना प्रकाशित करतात त्याप्रमाणे विद्वानांनी सर्व माणसांना चांगले शिक्षण देऊन ब्रह्मचर्य, विद्या, धर्मानुष्ठान व सुस्वभाव यांचा सर्वत्र प्रसार करून सर्व माणसांना ज्ञानाच्या व आनंदाच्या प्रकाशाने उजळून टाकावे.
विषय
विद्वज्जनांनी कोणाप्रमाणे काय करावे (कसे वागावे) याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान, ज्याप्रमाणे (प्रथम:) (जातवेदा:) उत्पन्न सर्व पदार्थांमधे सर्वांहून आधी विद्यमान असलेला (अग्नि:) अग्नी (उषसाम्) सूर्याला, (अग्रम्) उष:काळाला आणि (अहानि) दिवसाला क्रमाने प्रकाशित करतो, तसेच (सूर्य्यस्य) सूर्याच्या (अग्रम्) आधी (त्याच्या) पुरुत्रा) अनेक वा अत्याधिक (रश्मीन्) किरणांना (अन्वाततन्थ) विस्तारित करतो तसेच (द्यावापृथ्विवी) सूर्य आणि पृथ्वीलोकास प्रकाशित करतो (अग्नी सर्व पदार्थात आधीच विद्यमान आहे. तोच सूर्य, उष:काळ व दिनाच्या रुपाने प्रकट होतो) त्याप्रमाणे हे विद्वान, आपण विद्येचा प्रसार करा, सर्वांना योग्य आचरणाकडे प्रवृत्त करा. ॥17॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. ज्याप्रमाणे सर्व पदार्थांत गुप्तपणे विद्यमान असलेला कारणरूप विद्युत अग्नी नंतर भौतिक अग्नी रुपात प्रकट होऊन क्रमाक्रमाने सूर्याला, उष:कालाला आणि दिवसाला उत्पन्न करून पृथ्वी आदी पदार्थांना प्रकाशित करतो, त्याचप्राणे विद्वज्जनांनाही पाहिजे की त्यांनी सर्व मनुष्यांना उत्कृष्ट शिक्षण देऊन, ब्रह्मचर्य, विद्या आणि धर्माचे अनुष्ठान करवावे आणि अशाप्रकारे सुस्वभाव (सद्गुण सद्व्य बहार) आदीचा सर्वत्र प्रसार करून सर्वांना ज्ञान व आनंदरुप प्रकाशाने प्रकाशित करावे. ॥17॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The first and foremost God illuminates the sun before twilight. He also illuminates the days, and multiple beams of the sun. He alone establishes the Heaven and Earth.
Meaning
The original agni (fire) is present in every thing that is born in the universe. It is there before the dawn, and with the dawn it proclaims the day. It is there before the sun, and with the sun it pervades the rays of light across the earth, the skies and the heavens. (As the original fire pervades the heat and light of existence, so should the learned man spread the light of knowledge everywhere).
Translation
The adorable Lord illuminates the beginnings of the dawns; He, the foremost and the ominiscient, illuminates the days as well. He illuminates the rays of the sun in various ways; and He has pervaded the heaven and earth all along. (1)
Notes
Anu akhyat, अनुक्रमेण प्रकाशितवान्, illuminates one after the other. First He illumines the pre-dawns, then the days and then whole of the sky and earth. Purutra, बहुधा, in various ways.
बंगाली (1)
विषय
বিদ্বাংসঃ কিংবৎকিং কুর্য়্যুরিত্যুপদিশ্যতে ॥
বিদ্বান্ ব্যক্তি কাহার সমান কী করিবেন এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! আপনি যেমন (প্রথমঃ) (জাতবেদাঃ) জাত পদার্থ সকলের মধ্যে প্রথমেই বিদ্যমান সূর্য্যলোক এবং (অগ্নিঃ) অগ্নি (উষসাম) উষঃকাল হইতে (অগ্রম্) প্রথমেই (অহানি) দিনকে (অন্বখ্যৎ) প্রসিদ্ধ করেন (সূর্য়্যস্য) সূর্য্যের (অগ্রম্) প্রথমে (পুরুত্রা) অনেক (রশ্মীন্) কিরণগুলিকে (অন্বাততন্থ) বিস্তৃত করেন (দ্যাবাপৃথিবী চ) তথা সূর্য্য ও পৃথিবী লোককে প্রসিদ্ধ করেন, সেইরূপ বিদ্যার ব্যবহার প্রবৃত্ত করুন ॥ ১৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন কারণ রূপ বিদ্যুৎ এবং কার্য্যরূপ প্রসিদ্ধ অগ্নি ক্রমপূর্বক সূর্য্য, উষঃকাল এবং দিন উৎপন্ন করিয়া পৃথিবী ইত্যাদি পদার্থ সকলকে প্রকাশিত করে, সেইরূপ বিদ্বান্দিগের উচিত যে, সুন্দর শিক্ষা প্রদান করিয়া ব্রহ্মচর্য্য বিদ্যা ধর্ম্মের অনুষ্ঠান এবং সুস্বভাবাদির সর্বত্র প্রচার করিয়া সকল মনুষ্যকে জ্ঞান ও আনন্দ দ্বারা প্রকাশযুক্ত করিবেন ॥ ১৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অন্ব॒গ্নিরু॒ষসা॒মগ্র॑মখ্য॒দন্বহা॑নি প্রথ॒মো জা॒তবে॑দাঃ ।
অনু॒ সূর্য়॑স্য পুরু॒ত্রা চ॑ র॒শ্মীননু॒ দ্যাবা॑পৃথি॒বীऽআ ত॑তন্থ ॥ ১৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অন্বগ্নিরিত্যস্য পুরোধা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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