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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 27
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    76

    त्वम॑ग्ने॒ द्युभि॒स्त्वमा॑शुशु॒क्षणि॒स्त्वम॒द्भ्यस्त्वमश्म॑न॒स्परि॑। त्वं वने॑भ्य॒स्त्वमोष॑धीभ्य॒स्त्वं नृ॒णां नृ॑पते जायसे॒ शुचिः॑॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। अ॒ग्ने॒। द्युभि॒रिति॒ द्युऽभिः॑। त्वम्। आ॒शु॒शु॒क्षणिः॑। त्वम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। त्वम्। अश्म॑नः। परि॑। त्वम्। वने॑भ्यः। त्वम्। ओष॑धीभ्यः। त्वम्। नृ॒णाम्। नृ॒प॒त॒ इति॑ नृऽपते। जा॒य॒से॒। शुचिः॑ ॥२७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने द्युभिस्त्वमाशुशुक्षणिस्त्वमद्भ्यस्त्वमश्मनस्परि । त्वँवनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वन्नृणां नृपते जायसे शुचिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। द्युभिरिति द्युऽभिः। त्वम्। आशुशुक्षणिः। त्वम्। अद्भ्य इत्यत्ऽभ्यः। त्वम्। अश्मनः। परि। त्वम्। वनेभ्यः। त्वम्। ओषधीभ्यः। त्वम्। नृणाम्। नृपत इति नृऽपते। जायसे। शुचिः॥२७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 27
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सभेशः कीदृशो भवेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे नृपते अग्ने सभाध्यक्ष राजन्! यस्त्वं द्युभिः सूर्य्य इव त्वमाशुशुक्षणिस्त्वमद्भ्यस्त्वमश्मनस्त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां मध्ये शुचिः परिजायसे तस्मात् त्वामाश्रित्य वयमप्येवम्भूता भवेम॥२७॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) अग्निवत् प्रकाशमान न्यायाधीश राजन्! (द्युभिः) दिनैरिव प्रकाशमानै-र्न्यायादिगुणैः (त्वम्) (आशुशुक्षणिः) शीघ्रं शीघ्रं दुष्टान् क्षिणोति हिनस्तीव (त्वम्) (अद्भ्यः) वायुभ्यो जलेभ्यो वा (त्वम्) (अश्मनः) मेघात् पाषाणाद्वा। अश्मेति मेघनामसु पठितम्॥ (निघण्टु १।१०) (परि) सर्वतोभावे (त्वम्) (वनेभ्यः) जङ्गलेभ्यो रश्मिभ्यो वा (त्वम्) (ओषधीभ्यः) सोमलतादिभ्यः (त्वम्) (नृणाम्) मनुष्याणाम् (नृपते) नृणां पालक (जायसे) प्रादुर्भवसि (शुचिः) पवित्रः॥२७॥ इमं मन्त्रं यास्कमुनिरेवं व्याचष्टे-त्वमग्ने द्युभिरहोभिस्त्वमाशुशुक्षणिराशु इति च शु इति च क्षिप्रनामनी भवतः क्षणिरुत्तरः क्षणोतेराशु शुचा क्षणोतीति वा सनोतीति घा शुक् शोचतेः पञ्चम्यर्थे वा प्रथमा तथाहि वाक्यसंयोग आ इत्याकार उपसर्गः पुरस्ताच्चिकीर्षितेऽनुत्तर आशुशोचयिषुरिति शुचिः शोचतेर्ज्वलतिकर्मणोऽयमपीतरः शुचिरेतस्मादेव निष्षिक्तमस्मात् पापकमिति नैरुक्ताः॥ निरु॰ ६। १॥

    भावार्थः

    यो राजा सभ्यः प्रजाजनो वा सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यो गुणग्रहणविद्याक्रियाकौशलाभ्यामुपकारान् ग्रहीतुं शक्नोति, धर्माचरणेन पवित्रः शीघ्रकारी च भवति, स सर्वाणि सुखानि प्राप्नोति नेतरोऽलसः॥२७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर सभाध्यक्ष कैसा होना चाहिये, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (नृपते) मनुष्यों के पालने हारे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान न्यायाधीश राजन्! (त्वम्) आप (द्युभिः) दिनों के समान प्रकाशमान न्याय आदि गुणों से सूर्य्य के समान (त्वम्) आप (आशुशुक्षणिः) शीघ्र दुष्टों को मारने हारे (त्वम्) आप (अद्भ्यः) वायु वा जलों से (त्वम्) आप (अश्मनः) मेघ वा पाषाणादि से (त्वम्) आप (वनेभ्यः) जङ्गल वा किरणों से (त्वम्) आप (ओषधीभ्यः) सोमलता आदि ओषधियों से (त्वम्) आप (नृणाम्) मनुष्यों के बीच (शुचिः) पवित्र (परि) सब प्रकार (जायसे) प्रसिद्ध होते हो, इस कारण आप का आश्रय लेके हम लोग भी ऐसे ही होवें॥२७॥

    भावार्थ

    जो राजा, सभासद् वा प्रजा का पुरुष सब पदार्थों से गुण ग्रहण और विद्या तथा क्रिया की कुशलता से उपकार ले सकता है और धर्म के आचरण से पवित्र तथा शीघ्रकारी होता है, वही सब सुखों को प्राप्त हो सकता है, अन्य आलसी पुरुष नहीं॥२७॥

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    विषय

    ज्योति का प्रादुर्भाव

    पदार्थ

    १. प्रभु से रक्षित गत मन्त्र का ‘पायु’ फिर से प्रभु-स्तवन में आनन्द लेता हुआ ‘गृत्समद’ बनता है और इस रूप में स्तुति करता है— २. हे ( अग्ने ) = अपने तेज से सब बुराइयों को भस्म करनेवाले प्रभो! ( त्वम् ) = आप और ( त्वम् ) = आप ही ( द्युभिः ) = अपनी ज्ञान-ज्योतियों से ( आशुशुक्षणिः ) = शीघ्रता से हमारे सब काम, क्रोध व लोभादि शत्रुओं का शोषण करनेवाले हैं। प्रभु की ज्योति से दीप्त हृदय में वासना-लताएँ नहीं पनपतीं। 

    २. हे ( नृपते ) = वासना-शोषण द्वारा मनुष्यों के रक्षक प्रभो! ( शुचिः ) = आप पूर्ण पवित्र व पूर्ण दीप्त हो। 

    ३. ( त्वम् ) = आप ( अद्भ्यः ) = समुद्र के विस्तृत जलों से ( जायसे ) = आविर्भूत होते हो। ( ‘यस्य समुद्रम् ) = ये समुद्र भी तो आपकी महिमा का प्रतिपादन कर रहे हैं। 

    ४. ( त्वम् ) = आप ( अश्मनः ) = मेघ से [ नि० १।१० ] ( परिजायसे ) = अन्तरिक्ष में चारों ओर आविर्भूत हो रहे हो। अन्तरिक्ष में उमड़ते हुए बादल आपकी महिमा को प्रकट कर रहे हैं। 

    ५. ( त्वं वनेभ्यः ) = आप ही इन मीलों-मील फैले हुए वनों में प्रकट हो रहे हैं। इन वनों में भी आपकी ही विभूति दृष्टिगोचर होती है। 

    ६. ( त्वम् ओषधीभ्यः ) = आप ही इन वनोत्पन्न ओषधियों में प्रकट होते हो। ओषधियाँ भी आपकी ही महिमा का प्रतिपादन कर रही हैं। इस महिमा को ज्ञानी ही सुन पाता है। 

    ७. ( त्वम् ) = आप ( नृणाम् ) = [ नॄ नयने ] अपने को उन्नति-पथ पर ले-चलनेवाले पुरुषों में ( जायसे ) = आविर्भूत होते हो। वे श्रेष्ठ पुरुष भी आपकी ही विभूति होते हैं। 

    ८. यहाँ प्रसंगवश यह भी स्पष्ट है कि प्रभु का दर्शन वे ही करते हैं जो मेघस्थ जलों का या वन की वनस्पतियों का ही प्रयोग करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम प्रभु-दर्शन के लिए वनौषधियों को ही भोजन बनाएँ, मेघजलों को ही पेय द्रव्य समझें। निरन्तर आगे बढ़ने की भावनावाले हों। अवश्य हममें प्रभु की ज्योति जगेगी और उस ज्योति से सब वासनाएँ भस्म हो जाएँगी।

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    विषय

    अग्नि के समान सेनापति का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! अग्रणी ! तेजस्विन् ! ( नृपते ) मनुष्यों के पालक राजन् ! ( त्वं द्युभिः जायसे ) जिस प्रकार प्रकाशमान किरणों से सूर्य प्रकाशित होता है और प्रकाशमान तेजों से अग्नि दीप्त है, उसी प्रकार न्याय, विनय, प्रताप आदि तेजस्वी गुणों से तू भी प्रकाशमान होता है । (त्वम् आशुशुक्षणिः) अग्नि सूर्य या जिस प्रकार शीघ्र ही अन्धकार का नाश करता है उसी प्रकार तू भी दुष्टों को शीघ्र नाश करता है ( अश्मन: परि ) जिस प्रकार विद्युत् मेघ से उत्पन्न होता है और प्रकाशित होता है उसी प्रकार ( त्वम् ) तू ( अश्मन: ) व्यापक सामर्थ्य या वज्ररूप शस्त्रबल के ऊपर ( परि जायसे) वृद्धि को प्राप्त होता है । ( वनेभ्यः ) किरणों से जिस प्रकार सूर्य प्रकाशित होता है और वनों से जिस प्रकार सर्वदाहक दावानल पैदा होता है उसी प्रकार ( त्वं ) तू भी (वनेभ्यः ) सेवन करने योग्य प्रजाजनों के बीच में से उत्पन्न होता है । ( त्वम् ओषधीभ्यः ) ओषधियों के बीच में से काष्ठ आदि में से जिस प्रकार अग्नि प्रकट होती है अथवा जिस प्रकार ओषधि रसों से तेजाबरूप दाहक रस उत्पन्न होता है अथवा दाह या ताप धारण करनेवाले रश्मियों से सूर्य प्रकट होता है उसी प्रकार तू ( ओषधीभ्यः ) दाह, प्रताप, पराक्रम को धारण करनेवाले वीरों के बीच में से प्रकट होता है । ( त्वं नृणाम् शुचिः ) तू समस्त मनुष्यों को शुद्ध, उज्वल करनेवाला और उन सब में से स्वयं ( शुचिः ) शुद्ध, तेजस्वी, एवं निश्छल निष्कपट, शुद्ध व्यवहारवान, सत्यवादी, निष्पाप होकर ( जायसे ) प्रकट होता है । 'शुचिः' शोचतेर्ज्वलतिकर्मणः । अयमपि इतरः शुचिरेतस्मादेव । निष्षिक्तमस्मात् पापकम् इति नैरुक्ताः । निरु० ६।१ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्स्समद ऋषिः । अग्निर्देवता । पंक्तिः । पञ्चमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जो राजा, सभासद किंवा प्रजापुरुष सर्व पदार्थांचे गुणधर्म जाणून विद्या व कार्यकुशलतेने त्यांचा लाभ करून घेतो व धर्माप्रमाणे वागून पवित्र व गतिमान बनतो तोच सर्व सुख प्राप्त करू शकतो. अन्य आळशी पुरुष ते करू शकत नाही.

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    विषय

    पुनश्च, तो सभाध्यक्ष कसा असावा, हा विषय पुढील मंत्रात वर्णित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (प्रजाजनांची उक्ती) हे (नृपते) जनांचे पालन करणार्‍या (अग्ने) अग्नीप्रमाणे तेजस्वी असलेल्या न्यायाधीश राजा, (त्वम्) आपण (द्युभि:) दिवसाप्रमाणे प्रकाशमान (कीर्तिमान) आणि न्याय आदीगुणांमुळे सूर्यासमान आहात (सूर्य सर्वांना सारखेपणाने प्रकाश देतो, तद्वत आपणही सर्वांना सारखेपणाने न्याय देता) (त्वम्) आपण (आशुशुक्षीण:) दृष्टांचा त्वरित नाश करणारे आहात. (त्वम्) आपण (अद्भ्य:) वायू अथवा जल (त्वम्) आपण (अश्वन:) मेध अथवा किरणांविषयीं (त्वम्) आपण (ओषधिभ्य:) सोमलता आदी औषधीविषयीं (त्वम्) आपण (नृणाम्) मनुष्यांमध्ये (प्रजाजनांमध्ये) (परि) सर्वप्रकारे (वरील कारणांमुळे) (शुधि:) पवित्र व (जायसे) प्रसिद्ध आहात (आपण ‘नृपति’ या नात्याने राज्याच्या वायू, जल, वृष्टी, वन, औषधी आदी क्षेत्रात जे कार्य केले आहे, त्यामुळे आपण प्रजेत प्रशंसनीय झाला आहात) यामुळे आपल्या आश्रमात राहून आम्ही प्रजाजनांनी देखील आपल्यासारखे व्हायला पाहिजे (या सर्वक्षेत्रात प्रजेने राजाला सहकार्य केले पाहिजे) ॥27॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जो राजा, सभासद अथवा प्रजाजन, सर्व पदार्थांपासून गुण ग्रहण करतो, विद्या आणि क्रिया (सिद्धांत आणि प्रयोग) द्वारे त्या गुणांचा लाभ घेतो, तोच धर्माचरणामुळे पवित्र व शीघ्रकारी होतो. तोच सर्व सुखांचा स्वामी होतो, याहून अन्य जे आळशी लोक आहेत, ते कदापि सुखी होऊ शकत नाहीत. ॥27॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Thou, Sovereign Lord of men, just King, resplendent like fire, brilliant like the sun, speedy destroyer of the wicked, with air and waters, with clouds and stones, with forests and beams, with medicinal herbs, art adorned in every way, being pure amongst the subjects.

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    Meaning

    Agni/Ruler/Yajamana, guardian and protector of the people, brilliant as daylight, instant in action against evil and darkness, from the waters and air, herbs, forests and sunbeams, thunder, cloud and granite, you take the best and rise pure and purer, strong and stronger among the people every day every way.

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    Translation

    O fire divine, sovereign of men, quick dispeller of darkness, you are born with the days. You are generated pure from waters, from stones, from forest wood, from herbs, and as the fire of the sacrificer. (1)

    Notes

    Dyubhih, with the days. Asuéuksanih, आशु शुचा दीप्त्या क्षिणोति हंति तम: सनोति संभजते वा, one that quickly kills the darkness. The fire is produced from waters (of the sky, clouds), from stones, from forests (by friction of dry branches) and from herbs.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সভেশঃ কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
    পুনঃ সভাধ্যক্ষ কেমন হওয়া দরকার এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (নৃপতে) মনুষ্যদিগের পালক (অগ্নে) অগ্নির সমান প্রকাশমান ন্যায়াধীশ রাজন্ ! (ত্বম্) আপনি (দ্যুভিঃ) দিনের সমান প্রকাশমান ন্যায়াদি গুণে সূর্য্যের ন্যায় (ত্বম্) আপনি (আশুশুক্ষণিঃ) শীঘ্র শীঘ্র দুষ্টদিগের হত্যাকারক (ত্বম্) আপনি (অদ্ভ্যঃ) বায়ু বা জল দ্বারা (ত্বম্) আপনি (অস্মনঃ) মেঘ বা পাষাণাদি দ্বারা (ত্বম্) আপনি (বনেভ্যঃ) জঙ্গল বা কিরণ দ্বারা (ত্বম্) আপনি (ওষধীভ্যঃ) সোমলতাদি ওষধী দ্বারা (ত্বম্) আপনি (ণৃণাম্) মনুষ্যদিগের মধ্যে (শুচিঃ) পবিত্র (পরি) সর্ব প্রকার (জায়সে) প্রসিদ্ধ হইয়া থাকেন, এই কারণে আপনার আশ্রয় লইয়া আমরাও এইরকমই হইব ॥ ২৭ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে রাজা, সভাসদ্ অথবা প্রজাগণ সকল পদার্থ হইতে গুণ গ্রহণ এবং বিদ্যা তথা ক্রিয়া-কুশলতা দ্বারা উপকার লইতে পারে এবং ধর্মের আচরণ দ্বারা পবিত্র তথা শীঘ্রকারী হইয়া থাকে, সেই সব সুখ প্রাপ্ত হইতে পারে, অন্যান্য অলস ব্যক্তি নহে ॥ ২৭ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ত্বম॑গ্নে॒ দ্যুভি॒স্ত্বমা॑শুশু॒ক্ষণি॒স্ত্বম॒দ্ভ্যস্ত্বমশ্ম॑ন॒স্পরি॑ ।
    ত্বং বনে॑ভ্য॒স্ত্বমোষ॑ধীভ্য॒স্ত্বং নৃ॒ণাং নৃ॑পতে জায়সে॒ শুচিঃ॑ ॥ ২৭ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত্বমগ্ন ইত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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