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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 65
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - वस्वादयो लिङ्गोक्ता देवताः छन्दः - भुरिग्धृतिः स्वरः - षड्जः
    72

    वस॑व॒स्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु गाय॒त्रेण॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् रु॒द्रास्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु॒ त्रैष्टु॑भेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वदा॑दि॒त्यास्त्वाऽऽछृ॑न्दन्तु॒ जाग॑तेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वद् विश्वे॑ त्वा दे॒वा वै॑श्वान॒राऽऽआछृ॑न्द॒न्त्वानु॑ष्टुभेन॒ छन्द॑साऽङ्गिर॒स्वत्॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वस॑वः। त्वा॒। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। गा॒य॒त्रेण॑। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। रु॒द्राः। त्वा॒। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। त्रैष्टु॑भेन। त्रैस्तु॑भे॒नेति॒ त्रैऽस्तु॑भेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। आ॒दि॒त्याः। त्वा। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। जाग॑तेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। विश्वे॑। त्वा॒। दे॒वाः। वै॒श्वा॒न॒राः। आ। छृ॒न्द॒न्तु॒। आनु॑ष्टुभेन। आनु॑स्तुभे॒नेत्यानु॑ऽस्तुभेन। छन्द॑सा। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसवस्त्वा च्छृन्दन्तु गायत्रेण च्छन्दसाङ्गिरस्वद्रुद्रास्त्वाच्छृन्दन्तु त्रैष्टुभेन च्छन्दसाङ्गिरस्वदादित्यास्त्वा च्छृन्दन्तु जागतेन च्छन्दसाङ्गिरस्वद्विश्वे त्वा देवा वैश्वानराऽआच्छृन्दन्त्वानुष्टुभेन च्छन्दसाङ्गिरस्वत् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वसवः। त्वा। आ। छृन्दन्तु। गायत्रेण। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। रुद्राः। त्वा। आ। छृन्दन्तु। त्रैष्टुभेन। त्रैस्तुभेनेति त्रैऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। आदित्याः। त्वा। आ। छृन्दन्तु। जागतेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्। विश्वे। त्वा। देवाः। वैश्वानराः। आ। छृन्दन्तु। आनुष्टुभेन। आनुस्तुभेनेत्यानुऽस्तुभेन। छन्दसा। अङ्गिरस्वत्॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 65
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ स्त्रीपुरुषौ प्रति विद्वांसः किं कुर्युरित्याह॥

    अन्वयः

    हे स्त्रि पुरुष वा! वसवो गायत्रेण छन्दसा यां यं त्वाऽङ्गिरस्वदाछृन्दन्तु। रुद्रास्त्रैष्टुभेन छन्दसा त्वाऽङ्गिरस्वदाछृन्दन्तु। आदित्या जागतेन छन्दसा त्वाऽङ्गिरस्वदाछृन्दन्तु। वैश्वानरा विश्वे देवा आनुष्टुभेन छन्दसा त्वाऽङ्गिरस्वदाछृन्दन्तु॥६५॥

    पदार्थः

    (वसवः) आदिमा विद्वांसः (त्वा) त्वां पुमांसं स्त्रियं च (आ) समन्तात् (छृन्दन्तु) प्रदीप्यन्ताम् (गायत्रेण) गायन्ति सद्विद्या येन तेन वेदस्थविभक्तेन स्तोत्रेण (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) अग्निवत् (रुद्राः) मध्यमा विद्वांसः (त्वा) (आ) (छृन्दन्तु) (त्रैष्टुभेन) त्रीणि कर्मोपासनाज्ञानानि स्तोभन्ते स्थिरीकुर्वन्ति येन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) प्राणवत् (आदित्याः) उत्तमा विपश्चितः (त्वा) (आ) (छृन्दन्तु) (जागतेन) जगद्विद्याप्रकाशकेन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) सूर्यवत् (विश्वे) सर्वे (त्वा) (देवाः) सदुपदेशप्रदातारः (वैश्वानराः) सर्वेषु नरेषु राजन्तः (आ) (छृन्दन्तु) (आनुष्टुभेन) विद्यां गृहीत्वा पश्चाद् दुःखानि स्तभ्नुवन्ति येन तेन (छन्दसा) (अङ्गिरस्वत्) समस्तौषधिरसवत्। [अयं मन्त्रः शत॰६.५.४.१७ व्याख्यातः]॥६५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्गारः। हे स्त्रीपुरुषौ! युवां ये याश्च विद्वांसः विदुष्यश्च शरीरात्मबलकारोपदेशेन सुशोभयेयुस्तेषामेव सेवासङ्गौ सततं कुर्याताम्, नेतरेषां क्षुद्राणाम्॥६५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उन स्त्री-पुरुषों के प्रति विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे स्त्रि वा पुरुष! (वसवः) प्रथम विद्वान् लोग (गायत्रेण) श्रेष्ठ विद्याओं का जिससे गान किया जावे, उस वेद के विभागरूप स्तोत्र (छन्दसा) गायत्री छन्द से जिस (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) अग्नि के तुल्य (आछृन्दन्तु) प्रकाशमान करें। (रुद्राः) मध्यम विद्वान् लोग (त्रैष्टुभेन) कर्म, उपासना और ज्ञान जिस से स्थिर हों, उस (छन्दसा) वेद के स्तोत्र भाग से (अङ्गिरस्वत्) प्राण के समान (त्वा) तुझ को (आछृन्दन्तु) प्रज्वलित करें। (आदित्याः) उत्तम विद्वान् लोग (जागतेन) जगत् की विद्या प्रकाश करने हारे (छन्दसा) वेद के स्तोत्रभाग से (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) सूर्य्य के सदृश तेजधारी (आछृन्दन्तु) शुद्ध करें। (वैश्वानराः) सम्पूर्ण मनुष्यों में शोभायमान (देवाः) सत्य उपदेश देने हारे (विश्वे) सब विद्वान् लोग (आनुष्टुभेन) विद्या ग्रहण के पश्चात् जिस से दुःखों को छुड़ावें उस (छन्दसा) वेदभाग से (त्वा) तुझ को (अङ्गिरस्वत्) समस्त ओषधियों के रस के समान (आछृन्दन्तु) शुद्ध सम्पादित करें॥६५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्गार है। हे स्त्रीपुरुषो! तुम दोनों को चाहिये कि जो विद्वान् पुरुष और विदुषी स्त्री लोग तुम को शरीर और आत्मा का बल कराने हारे उपदेश से सुशोभित करें, उनकी सेवा और सत्सङ्ग निरन्तर करो और अन्य तुच्छ बुद्धि वाले पुरुषों वा स्त्रियों का सङ्ग कभी मत करो॥६५॥

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    विषय

    उच्छर्दन

    पदार्थ

    १. हे प्रभु-भक्त! ( वसवः ) = उत्तम निवास की विद्या के आचार्य ( त्वा ) = तुझे ( गायत्रेण छन्दसा ) = प्राणरक्षण की इच्छा से ( छृन्दन्तु ) = दीप्त करें, जिससे ( अङ्गिरस्वत् ) = तू अङ्गिरस् की भाँति बन सके। २. ( रुद्राः ) = वासनाओं के विनाश की विद्या के आचार्य ( त्वा ) = तुझे ( त्रैष्टुभेन छन्दसा ) = काम, क्रोध व लोभ को रोकने की इच्छा से ( छृन्दन्तु ) = दीप्त करें, जिससे तू ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति बन सके। ३. ( आदित्याः ) = सूर्यसम-ज्ञान की ज्योति को धारण करनेवाले आचार्य ( जागतेन छन्दसा ) = जगती के हित की इच्छा से ( त्वा ) = तुझे ( छृन्दन्तु ) = दीप्त करें, जिससे तू ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति बन सके। ४. ( वैश्वानराः ) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले ( विश्वेदेवाः ) = सब देव [ विद्वान् ] ( आनुष्टुभेन छन्दसा ) = अनुक्षण प्रभु-स्तवन की इच्छा से ( आछृन्दन्तु ) = सर्वतः दीप्त करनेवाले हों, जिससे तू ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति बन सके। ५. चार बातें ही हमें ( अङ्गिरस् ) = जीवन-शक्ति से परिपूर्ण, रसमय अङ्गोंवाला बना सकती हैं—[ क ] प्राणरक्षण की इच्छा, प्राणशक्ति को क्षीण न होने देने की प्रबल भावना [ ख ] काम, क्रोध व लोभ को रोकना [ ग ] जगती के हित में प्रवृत्त रहना, तथा [ घ ] अनुक्षण प्रभु-चिन्तन, उसी के नाम का जप, उसी का स्मरण। ६. वसुओं, रुद्रों, आदित्यों व विश्वेदेवों ने इन्हीं भावनाओं को हममें भरने के लिए यत्नशील होना है। ७. इन भावनाओं से ही हमारा जीवन दीप्त हो सकेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम प्राणरक्षण, ‘काम, क्रोध व लोभ’—निवारण, जगती के हित की कामना तथा प्रतिक्षण प्रभु-स्तवन से अपने जीवनों को दीप्त करें।

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    विषय

    विद्वानों का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे उखे ! पृथिविवासिनी प्रजे ! ( त्वा ) तुझको ( वसवः ) प्रजाओं को बसाने में समर्थ वसु नामक विद्वान् ( गायत्रेण छन्दसा ) पूर्वोत्क गायत्र छन्द, बाह्मण शक्ति ( अंगिरस्वत ) अन्नि के समान तेज से युक्त होकर ( छृन्दन्तु ) तेजस्वी बनावें । ( रुद्रा: त्रैष्टुभेन छन्दसा अङ्गिर- स्वत् छन्दन्तु ) अंगारे जिस प्रकार हंडिया को तपाते हैं उसी प्रकार रुद्र नामक विद्वान् पुरुष तुझको त्रिष्टुभ छन्द से तेजस्वी ज्ञानवान् करें। ( आदित्याः त्वा जागतेन छन्दसा छन्दन्तु अङ्गिरस्वत् ) आदित्य नामक विद्वान् अग्नि के समान तुमको जागत छन्द से तेजस्वी, पराक्रमशील समृद्धिमान् करें । ( वैश्वानराः ) समस्त प्रजाओं के नेता ( विश्वे देवा: ) समस्त विद्वान् पुरुष ( आनुष्टुभेन छन्दसा ) अनुष्टुभ् छन्द से ( अङ्गिरस्वत् ) प्रदीप्त अग्नि के समान या सूर्य की किरणों के समान (आछृन्दन्तु ) प्रदीप्त, उज्वल, सम्पन्न वैभवयुक्त करें । शत० ६ । ५। ४ । १७ ॥ हे स्त्री वा पुरुष तुमको वसु, रुद्र, आदित्य विश्वेदेव नामक विद्वान्गण गायत्री आदि वेद मन्त्रों से ज्ञानवान् तेजस्वी करें ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वस्वादयो लिङ्गोक्ता देवताः । धृतिः । षड्जः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे स्त्री पुरुषांनो ! जे विद्वान पुरुष व स्त्रिया तुमचे शरीर व आत्मा यांचे बल वाढविण्यासाठी उपदेश करून तुम्हाला उत्तम बनवितात त्यांची सेवा व सत्संग सदैव करा. इतर क्षुद्र बुद्धीच्या पुरुष व स्त्रियांचा संग कधी करू नका.

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    विषय

    त्या पति-पत्नीविषयी विद्वज्जनांनी काय केले पाहिजे, याविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे स्त्री, हे पुरुष (हे पति-पत्नी) (वरून:) प्रथम विद्वानजन ( हे ज्ञान व विद्येत कमी योग्यता असलेले आहेत) ते जन (गायत्रेण) ज्याद्वारे श्रेष्ठ विद्यांचे गान केले जाते, त्या वेदांच्या विभागरुप स्तोत्र म्हणजे (छन्दसा) गायत्री छन्दाद्वारा (त्वा) तुला वा तुम्हा दोघांना (अड्गिरस्वत्) अग्नीप्रमाणे (आच्छृदन्तु) प्रकाशमान (यशवान) करावे. (रुद्रा:) मध्यम (पात्रतेचे) विद्वज्जन (त्रैष्टुभेम) कर्म, उपासना आणि ज्ञान यांना स्थिर वा स्थायी करणार्‍या (छन्दसा) त्रिष्टुप् नामक वेदाच्या स्तोत्रभागाने (अडिगरस्वत) प्राणाप्रमाणे (त्वा) तुला (आच्छृन्दन्तु) प्रज्वलित वा उत्साहित करावे. (आदिव्या:) उत्तम कोटीच्या विद्वानांनी (जागतेन) जगाच्या सर्व विद्यांचा प्रकाश करणार्‍या (छन्दसा) वेदाच्या स्तोत्रभागाद्वारा (त्वा) तुला (अड्गिरस्वत्) सूर्याप्रमाणे तेजस्वी (आच्छृन्दन्तु) शुद्ध करावे. (वैश्यानरा:) समस्त मानवात शोभायमान आणि (देवा:) सत्य उपदेश देणार्‍या विश्वे) सर्व विद्वज्जनांनी (आनुष्टुभेन) विद्याग्रहणानंतर ज्याद्वारे दु:खापासून मुक्ती मिळते, अशा (छन्दसा) अनुष्टुप नामक वेदभागाने (त्वा) तुला (अड्गिरस्वत्) समस्त औषधींच्या रसाप्रमाणे (आच्छृन्दन्तु) शुद्ध करावे (वेदात गायत्री, जगती, अनुष्टुप् या छंदात जे ज्ञान प्रकट केलेले आहे, त्या ज्ञानाने पति-पत्नीचे जीवन उजळण्याचे कार्य समाजातील विद्वज्जनांनी केले पाहिजे) ॥65॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. हे स्त्री-पुरुषहो, जे विद्वान स्त्री वा पुरुष तुम्हा दोघांना शारीरिक व आत्मिकशक्ती प्रदान करण्यात आणि तुम्हांस उपदेश देऊन जागृत करणारे आहेत, तुम्ही दोघांनी त्याची सेवा करावी, घरात त्यांचे अतिथ्य-सत्कार करावे, कधीही तुच्छ वा संकुचित मन-बुद्धीच्या पुरुषांच्या वा स्त्रियांचा संग करूं नका ॥65॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man or woman, may the vasu Brahmcharis, illuminate thee like fire, with Gayatri verses. May the Rudra Brahmcharis, strengthen thee like vital breath with Trishtup verses. May the Aditya Brahmcharis make thee pure and lustrous, with Jagati verses. May all the sages and preachers of truth, make thee pure like medicinal herbs, with Anushtap verses.

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    Meaning

    May the scholars of the first order of Vasus, with the inspiring gayatri verses, kindle you like fire. May the scholars of the higher order of Rudras, with the enlightening trishtup verses, enlighten and firm you up, like pranic energy, in the triple discipline of knowledge, action and worship. May the scholars of the highest order of Adityas, like the sun, brighten you up with the jagati verses of world vision. May all the noble saints and sages of the world, with the elevating anushtup verses, enliven and sanctify you like the distilled essences of nature’s powers.

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    Translation

    May the young workers (aged 24) kindle you shining all around with the gayatri metre. (1) May the adult workers (aged 36) kindle you shining all around with the tristubh metre. (2) May the mature workers (aged 48) kindle you shining all around with the jagati metre. (3) May all the bounties of Nature, benevolent to men, kindle you shining all around with anustup metre. (4)

    Notes

    Acchrndantu,उच्छृदिर्दीप्तिदेवनयो: to enkindle or to play; may enkindle you.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তৌ স্ত্রীপুরুষৌ প্রতি বিদ্বাংসঃ কিং কুর্য়ুরিত্যাহ ॥
    সেই সব স্ত্রীপুরুষদের প্রতি বিদ্বান্গণ কী করিবেন এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে স্ত্রী বা পুরুষ ! (বসবঃ) প্রথম বিদ্বান্গণ (গায়ত্রেণ) শ্রেষ্ঠ বিদ্যাসকলের যাহার দ্বারা গান করা হয় সেই বেদের বিভাগরূপ স্তোত্র (ছন্দসা) গায়ত্রী ছন্দ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (অঙ্গিরস্বৎ) অগ্নিতুল্য (আছৃন্দন্তু) প্রকাশমান করুন । (রুদ্রাঃ) মধ্যম বিদ্বান্গণ (ত্রৈষ্টুভেন) কর্ম উপাসনা ও জ্ঞান যাহার দ্বারা স্থির হয় সেই (ছন্দসা) বেদের স্তোত্র ভাগ দ্বারা (অঙ্গিরস্বৎ) প্রাণতুল্য (ত্বা) তোমাকে (আছৃন্দন্তু) প্রজ্জ্বলিত করুন । (আদিত্যোঃ) উত্তম বিদ্বান্গণ (জাগতেন) জগতের বিদ্যা প্রকাশক (ছন্দসা) বেদের স্তোত্রভাগ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (অঙ্গিরস্বৎ) সূর্য্য সদৃশ তেজসম্পন্ন (আছৃন্দন্তু) শুদ্ধ করুন । (বৈশ্বানরাঃ) সম্পূর্ণ মনুষ্য মধ্যে শোভায়মান (দেবাঃ) সত্য উপদেশক (বিশ্বে) সকল বিদ্বান্গণ (আনষ্টুভেন) বিদ্যা গ্রহণের পশ্চাৎ যাহার দ্বারা দুঃখ ত্যাগ হয় তাহার (ছন্দসা) বেদভাগ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (অঙ্গিরস্বৎ) সমস্ত ওষধির রসের ন্যায় (আছৃন্দন্তু) শুদ্ধ সম্পাদিত করুন ॥ ৬৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । হে স্ত্রীপুরুষগণ ! তোমাদের উভয়ের কর্ত্তব্য যে, যে বিদ্বান্ পুরুষ এবং বিদুষী স্ত্রীগণ তোমাকে শরীর ও আত্মার বলদায়ক উপদেশক দ্বারা সুশোভিত করিবেন, তাঁহাদের সেবা ও সৎসঙ্গ সর্বদা করিতে থাকিবে এবং অন্য তুচ্ছ বুদ্ধিযুক্ত পুরুষ বা স্ত্রীগণের সঙ্গ কখনও করিবে না ॥ ৬৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    বস॑ব॒স্ত্বাऽऽ ছৃ॑ন্দন্তু গায়॒ত্রেণ॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ রু॒দ্রাস্ত্বাऽऽ ছৃ॑ন্দন্তু॒ ত্রৈষ্টু॑ভেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদা॑দি॒ত্যাস্ত্বাऽऽ ছৃ॑ন্দন্তু॒ জাগ॑তেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বদ্ বিশ্বে॑ ত্বা দে॒বা বৈ॑শ্বান॒রাऽऽ আছৃ॑ন্দ॒ন্ত্বানু॑ষ্টুভেন॒ ছন্দ॑সাऽঙ্গির॒স্বৎ ॥ ৬৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বসবস্ত্বেত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । বস্বাদয়ো লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ । ভুরিগ্ধৃতিশ্ছন্দঃ । ঋষভঃ স্বরঃ ॥

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