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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 64
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - मित्रो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    81

    उ॒त्थाय॑ बृह॒ती भ॒वोदु॑ तिष्ठ ध्रु॒वा त्वम्। मित्रै॒तां त॑ऽउ॒खां परि॑ ददा॒म्यभि॑त्याऽए॒षा मा भे॑दि॥६४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त्थाय॑। बृ॒ह॒ती। भ॒व॒। उत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। ध्रु॒वा। त्वम्। मित्र॑। ए॒ताम्। ते॒। उ॒खाम्। परि॑। द॒दा॒मि॒। अभि॑त्यै। ए॒षा। मा। भे॒दि॒ ॥६४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्थाय बृहती भवोदु तिष्ठ धु्रवा त्वम् । मित्रैतान्त उखाम्परिददाम्यभित्त्याऽएषा मा भेदि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उत्थाय। बृहती। भव। उत्। ऊँ इत्यूँ। तिष्ठ। ध्रुवा। त्वम्। मित्र। एताम्। ते। उखाम्। परि। ददामि। अभित्यै। एषा। मा। भेदि॥६४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 64
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः सा कीदृशीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विदुषि कन्ये! त्वं ध्रुवा बृहती भव, विवाहायोत्तिष्ठ, उत्थायैतं पतिं स्वीकुरु। हे मित्र! त एतामुखामभित्यै परिददामि, उ त्वयैषा मा भेदि॥६४॥

    पदार्थः

    (उत्थाय) आलस्यं विहाय (बृहती) महापुरुषार्थयुक्ता (भव) (उत्) (उ) (तिष्ठ) (ध्रुवा) मङ्गलकार्येषु कृतनिश्चया (त्वम्) (मित्र) सुहृद् (एताम्) (ते) तुभ्यम् (उखाम्) प्राप्तव्यां कन्याम् (परि) सर्वतः (ददामि) (अभित्यै) भयराहित्याय (एषा) प्रत्यक्षप्राप्ता पत्नी (मा) निषेधे (भेदि) भिद्यताम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.५.४.१३-१४ व्याख्यातः]॥६४॥

    भावार्थः

    कन्या वरश्च स्वप्रियं पुरुषं स्वकान्तां कन्यां च स्वयं परीक्ष्य स्वीकर्त्तुमिच्छेत्। यदा द्वयोर्विवाहकरणे निश्चयः स्यात्, तदैव मातापित्राचार्यादय एतयोर्विवाहं कुर्युरेतौ परस्परं भेदभावं व्यभिचारं च कदाचिन्न कुर्याताम्। किं तु स्वस्त्रीव्रतः पुमान् स्वपतिव्रता स्त्री च सङ्गतौ स्याताम्॥६४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसी होवे यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विदुषि कन्ये! (त्वम्) तू (ध्रुवा) मङ्गल काय्यों में निश्चित बुद्धिवाली और (बृहती) बड़े पुरुषार्थ से युक्त (भव) हो। विवाह करने के लिये (उत्तिष्ठ) उद्यत हो (उत्थाय) आलस्य छोड़ के उठकर इस पति का स्वीकार कर। हे (मित्र) मित्र (ते) तेरे लिये (एताम्) इस (उखाम्) प्राप्त होने योग्य कन्या को (अभित्यै) भयरहित होने के लिये (परिददामि) सब प्रकार देता हूँ (उ) इसलिये तू (एषा) इस प्रत्यक्ष प्राप्त हुई स्त्री को (मा भेदि) भिन्न मत कर॥६४॥

    भावार्थ

    कन्या और वर को चाहिये कि अपनी-अपनी प्रसन्नता से कन्या पुरुष की और पुरुष कन्या की आप ही परीक्षा कर के ग्रहण करने की इच्छा करें। जब दोनों का विवाह करने में निश्चय होवे, तभी माता-पिता और आचार्य आदि इन दोनों का विवाह करें और ये दोनों आपस में भेद वा व्यभिचार कभी न करें, किन्तु अपनी स्त्री के नियम में पुरुष और पतिव्रता स्त्री होकर मिल के चलें॥६४॥

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    विषय

    पाकस्थाली

    पदार्थ

    १. हे प्रभु-भक्त पत्नि! ( उत्थाय ) = उठकर, आलस्य छोड़कर ( बृहती भव ) = सदा वृद्धि को प्राप्त होनेवाली हो। आलस्य में गुणों का वास नहीं, गुण क्रियाशीलता में ही रहते हैं। गत मन्त्र में मूल भावना यही थी। ‘योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये’ योगी लोग आत्म-शुद्धि के लिए सदा अनासक्तभाव से कर्म करते हैं, अतः तू २. ( उ ) = निश्चय से ( उत्तिष्ठ ) = सदा विषयासक्ति से ऊपर उठी रह। क्रियाव्यापृत व्यक्ति विषयों से बचा रहता है। ३. वैषयिक वृत्तिवाली न होने से ( त्वम् ) = तू ( ध्रुवा ) = स्थिर हो। विषय-वासना हमारे जीवनों को भटकनेवाला बना देते हैं। ४. हे ( मित्र ) = अपने को पापों से बचाकर पवित्र बने रहनेवाले व्यक्ति! ( एताम् ) = इस ( ते ) = तुझे ( उखाम् ) = पाकस्थाली को ( परिददामि ) = देता हूँ, इसलिए देता हूँ कि ( अभित्या ) = अ-भेदन हो। ( एषा ) = यह पत्नी ( मा भेदि ) = तुझसे भिन्न न हो जाए। यह पतिव्रतत्व को छोड़कर परपुरुषासक्तिवाली न हो जाए। ५. मन्त्रार्थ में यह बात स्पष्ट है कि पत्नी कार्यव्यापृत हो। मनु ने पत्नी के लिए ‘गृहकार्येषु दक्षया’ = ‘घर के कार्यों में वह चतुर हो’ इन शब्दों से यही संकेत किया है कि पत्नी को सदा कार्यव्यापृत रखना आवश्यक है। पत्नी के लिए पाकस्थाली की अध्यक्षता ही ऐसी है जो उसे अवकाश प्राप्त न होने देगी। इस कार्य का संकेत इसलिए भी हुआ है कि यही कार्य स्वास्थ्य का मूल साधन है। ऋतुओं के अनुकूल अन्न का ठीक परिपाक सभी को स्वस्थ रक्खेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — पत्नी आलस्य शून्य हो, विषयों से ऊपर उठी हुई, घर में स्थिरता से रहे। घर के पाकादि कार्यों में अपने को व्यापृत रक्खे, जिससे वृत्ति सदा स्वस्थ रहे।

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    विषय

    पृथ्वी और पक्षान्तर में स्त्री का कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे प्रजे ! तू ( उत्थाय ) उठकर, अभ्युदयशील होकर ( बृहती भव ) बहुत बड़ी हो । तू ( उत् तिष्ठ ) उदय को प्राप्त हो, उठ, ( ध्रुवा त्वम् ) तू ध्रुवा है, सदा स्थिर रहने वाली है । हे ( मित्र ) प्रजा के सुहृद्- रूप राजन् ! ( उखाम् ) नाना ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली इस प्रजा को हांडी के समान ( ते परि ) तेरे अधीन (अभित्यै ) कभी छिन्न भिन्न न होने देने के लिये ( ददामि ) प्रदान करता हूं। देखना ( एषा ) यह ( मा भेदि ) कभी टूट न जाय । इसी प्रकार हे स्त्री ! तू उठकर बड़े पुरुषार्थं वाली हो । उठ, तू स्थिर होकर खड़ी हो। हे मित्रवर ! इस ! उखां ) प्रजा को खनन या प्राप्त कराने वाली स्त्री को तुझे सौंपता हूँ तुझ से कभी अलग न होने के लिये प्रदान करता हूं। यह तुझ से भिन्न होकर न रहे ॥ शत० ६ । ५ । ४ । १३ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उखा देवता । अनुष्टुप् । गांधारः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    स्त्रीने पुरुषाची व पुरुषाने स्त्रीची परीक्षा करून प्रसन्नतेने एकमेकांचा स्वीकार करण्याची इच्छा बाळगावी. जेव्हा दोघांचा विवाह करण्याचा निश्चय होईल तेव्हा माता-पिता, आचार्य इत्यादींनी त्या दोघांचा विवाह करावा. त्या दोघांचा आपापसात मतभेद होता कामा नये किंवा त्यांनी व्यभिचारही करता कामा नये. पुरुषाने स्त्रीच्या आधीन असावे व स्त्रीने पतिव्रता असावे. दोघांनी एकरूप बनून वागावे.

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    विषय

    स्त्री वा पत्नी कशी असावी, पुढील मंत्रात याविषयी प्रतिपादन केले आहे -

    शब्दार्थ

    (विवाह-संस्कारप्रसंगी पुरोहिताची आज्ञा) ^शब्दार्थ - हे विदुषी कन्ये, तू (ध्रुवा) मंगलकार्यात रुची व मग्न असणारी आणि (बृहती) अत्यंत पुरुषार्थवती (भव) हो. विवाह करण्यासाठी (उत्तिष्ठ) उडत हो. (उत्थाथ) आळस त्यागून उठ आणि या नियोजित पतीचा स्वीकार कर. ^2) हे (मित्र) मित्र (नियोजित पती वा वर) (मी पुरोहित वा वधूचा पिता) (ते) तुझ्याकरिता (एताम्) या (उखाम्) अनुरुप अशा कन्येला (अभित्यै) सर्वथा निर्भय राहण्यासाठी (परिददामि) देत आहे (उ) यामुळे तू (एषा) या प्रदत कन्येला (माभेदि) दूर करू नको (हिचा पत्नी म्हणून स्वीकार कर आणि पुढे कधीही हिला वियुक्त करू नकोस) ॥64॥

    भावार्थ

    भावार्थ - वधू आणि वर यांना उचित आहे की त्यांनी आपल्या इच्छेप्रमाणे स्त्रीने योग्य पुरुषाची आणि पुरुषाने योग्य स्त्रीची स्वत: परीक्षा वा निवड करावी. जेव्हां दोघांना विवाह करण्याविषयी निश्चय होईल, तेव्हां माता-पिता, आचार्य आदींनी त्या दोघांचा विवाह-संस्कार करावा. या दोघांनी कधीही आपसात वियुक्त होण्याचा विचार अथवा व्यभिचार करण्याचे कृत्य करू नये. पतीने आपल्या पत्नीच्या इच्छा-अनुकूल रहावे आणि पत्नीने पतिव्रता राहून दोघांनी मिळून सुंदर प्रिय गृहधर्म करावा ॥64॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O educated girl, be highly active, and firm in noble resolves. Get ready, and shedding idleness, marry this husband. O friend, I hand over this girl to thee, to remain without fear. Never separate her from thyself.

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    Meaning

    Enlightened girl, arise, and having risen, be great and stay firm. Friend, dear groom, I give unto you this noble and generous girl for wife wholly and exclusively for a free and fearless life. Never have any reservations with her, never entertain any differences with her as a matter of faith and trust.

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    Translation

    Rise up and wax great. Stand up, steady and firm. (1) O friendly Lord, I entrust you this cauldron to keep it unbroken. May it not break. (2)

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ সা কীদৃশীত্যুপদিশ্যতে ॥
    পুনঃ সে (স্ত্রী) কেমন হইবে এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদুষি কন্যে ! (ত্বম্) তুমি (ধ্রুবা) মঙ্গল কার্য্যে নিশ্চিত বুদ্ধিমতী এবং (বৃহতী) অত্যন্ত পুরুষকার যুক্ত (ভব) হও । বিবাহ করিবার জন্য (উত্তিষ্ঠ) উদ্যত হও (উৎথায়) আলস্য ত্যাগ করিয়া উঠিয়া এই পতিকে স্বীকার কর । হে (মিত্র) মিত্র (তে) তোমার জন্য (এতাম্) এই (উখাম্) প্রাপ্ত হইবার যোগ্য কন্যাকে (অভিত্যৈ) ভয়রহিত হইবার জন্য (পরিদদামি) সর্ব প্রকারে প্রদান করি (উ) এইজন্য তুমি (এষা) এই প্রত্যক্ষ প্রাপ্ত স্ত্রীকে (মা ভেদি) পৃথক করিও না ॥ ৬৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- কন্যা ও বরের উচিত যে, স্ব স্ব প্রসন্নতা অনুযায়ী কন্যা পুরুষের এবং পুরুষ কন্যার স্বয়ং পরীক্ষা করিয়া গ্রহণ করিবার ইচ্ছা করিবে । যখন উভয়ে বিবাহ করিতে নিশ্চিত হইবে তখনই মাতা-পিতাও আচার্য্য প্রভৃতি তাহাদের বিবাহ করিয়া দিবেন এবং ইহারা উভয়ে কখনও পৃথক হইবে না এবং ব্যভিচার করিবে না । কিন্তু পুরুষ পত্নীব্রত ও স্ত্রী পতিব্রতা হইয়াই মিলিয়া চলিবে ॥ ৬৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒ত্থায়॑ বৃহ॒তী ভ॒বোদু॑ তিষ্ঠ ধ্রু॒বা ত্বম্ ।
    মিত্রৈ॒তাং ত॑ऽউ॒খাং পরি॑ দদা॒ম্যভি॑ত্যাऽএ॒ষা মা ভে॑দি ॥ ৬৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উত্থায়েত্যস্য বিশ্বামিত্র ঋষিঃ । মিত্রো দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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