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यजुर्वेद अध्याय - 11

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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 32
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    93

    पु॒री॒ष्योऽसि वि॒श्वभ॑रा॒ऽअथ॑र्वा त्वा प्रथ॒मो निर॑मन्थदग्ने। त्वाम॑ग्ने॒ पुष्क॑रा॒दध्यथ॑र्वा॒ निर॑मन्थत॥ मू॒र्ध्नो विश्व॑स्य वा॒घतः॑॥३२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒री॒ष्यः᳖। अ॒सि॒। वि॒श्वभ॑रा॒ इति॑ वि॒श्वऽभ॑राः। अथ॑र्वा। त्वा॒। प्र॒थ॒मः। निः। अ॒म॒न्थ॒त्। अ॒ग्ने॒। त्वाम्। अ॒ग्ने॒। पुष्क॑रात्। अधि॑। अथ॑र्वा। निः। अ॒म॒न्थ॒त॒। मू॒र्ध्नः। विश्व॑स्य। वा॒घतः॑ ॥३२ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुरीष्योसि विश्वभराऽअथर्वा त्वा प्रथमो निरमन्थदग्ने । त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत । मूर्ध्ना विश्वस्य वाघतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पुरीष्यः। असि। विश्वभरा इति विश्वऽभराः। अथर्वा। त्वा। प्रथमः। निः। अमन्थत्। अग्ने। त्वाम्। अग्ने। पुष्करात्। अधि। अथर्वा। निः। अमन्थत। मूर्ध्नः। विश्वस्य। वाघतः॥३२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 32
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    विद्वान् विद्युतं कथमुत्पादयेदित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने विद्वन्! यो वाघतो भवान् पुरीष्योसि, तं त्वाऽथर्वा प्रथमो विश्वभरा विश्वस्य मूर्ध्नो वर्त्तमानात् पुष्करादध्यग्निं निरमन्थत्, स ऐश्वर्य्यमाप्नोति॥३२॥

    पदार्थः

    (पुरीष्यः) पुरीषेषु पशुषु साधुः (असि) (विश्वभराः) यो विश्वं बिभर्त्ति सः (अथर्वा) अहिंसको विद्वान् (त्वा) त्वाम् (प्रथमः) आद्यः (निः) नितराम् (अमन्थत्) (अग्ने) संपादितक्रियाकौशल (त्वाम्) (अग्ने) विद्वन्! (पुष्करात्) अन्तरिक्षात् (अधि) (अथर्वा) हिंसादिदोषरहितः (निः) (अमन्थत) (मूर्ध्नः) मूर्धेव वर्त्तमानस्य (विश्वस्य) समग्रस्य संसारस्य (वाघतः) मेधावी॥ वाघत इति मेधाविनामसु पठितम्॥ (निघं॰३।१५)[अयं मन्त्रः शत॰६.४.२.१-२ व्याख्यातः]॥३२॥

    भावार्थः

    येऽस्मिन् जगति विद्वांसो भवेयुस्ते सुविचारपुरुषार्थाभ्यामग्न्यादिविद्यां प्रसिद्धीकृत्य सर्वेभ्यः शिक्षेरन्॥३२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्वान् पुरुष बिजुली को कैसे उत्पन्न करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) क्रिया की कुशलता को सिद्ध करने हारे विद्वन्! जो (वाघतः) शास्त्रवित् आप (पुरीष्यः) पशुओं को सुख देने हारे (असि) हैं उस (त्वा) आपको (अथर्वा) रक्षक (प्रथमः) उत्तम (विश्वभराः) सब का पोषक विद्वान् (विश्वस्य) सब संसार के (मूर्ध्नः) ऊपर वर्त्तमान (पुष्करात्) अन्तरिक्ष से (अधि) समीप अग्नि को (निरमन्थत्) नित्य मन्थन करके ग्रहण करता है, वह ऐश्वर्य्य को प्राप्त होता है॥३२॥

    भावार्थ

    जो इस जगत् में विद्वान् पुरुष होवें वे अपने अच्छे विचार और पुरुषार्थ से अग्नि आदि की पदार्थविद्या को प्रसिद्ध करके सब मनुष्यों को शिक्षा करें॥३२॥

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    विषय

    निर्लिप्त मन + दीप्त मस्तिष्क — भरद्वाज का प्रभु-स्तवन

    पदार्थ

    १. ‘गृत्समद’ का वर्णन गत मन्त्रों में था। यह ‘प्रभु-स्तवन करता है, और मस्त रहता है’ अतः अपने में शक्ति का भरण करके ‘भरद्वाज’ बन जाता है। शक्ति का ह्रास मौलिकरूप से दो कारणों से होता है। [ क ] हम प्रभु से दूर हो जाते हैं तो हमें पग-पग पर घबराहट होती है। [ ख ] जब जीवन में प्रसन्नता नहीं रहती तो चिन्ता हमें खाये चली जाती है। चिन्ता शक्ति के लिए चिता के समान है। चिन्ता गई और मनुष्य ‘भरद्वाज’ [ शक्ति-सम्पन्न ] बना। यह भरद्वाज प्रभु-स्तवन करता है कि— २. ( पुरीष्यः असि ) = हे प्रभो! आप स्तोताओं के जीवन में आनन्द का पूरण करनेवाले हो। 

    ३. ( विश्वभरा ) = सबका भरण करनेवाले हो। 

    ४. ( अग्ने ) = प्रभो! ( प्रथमः ) = अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला ( अथर्वा ) = [ न थर्वति ] न डाँवाँडोल होनेवाला, अडोल मनवाला, स्थितप्रज्ञ ही ( त्वा ) = आपका ( निरमन्थत् ) = निश्चय से मन्थन कर पाता है। जैसे एक व्यक्ति दही का मन्थन करके घृत का दर्शन करता है, इसी प्रकार हे ( अग्ने ) = सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( अथर्वा ) = अडोल मनवाला पुरुष ही ( त्वाम् ) = आपको ( पुष्करात् अधि ) = इस कमल-पत्र की भाँति निर्लेप मन से ( निर् अमन्थत ) = निश्चय से मन्थित करता है, अर्थात् अपने इस हृदयाकाश में आपका दर्शन करता है। अथर्वा की भाँति ( वाघतः ) = मेधावी पुरुष—ज्ञान का वहन करनेवाला पुरुष ( विश्वस्य ) = [ विशति ] व्यापक ज्ञान में प्रवेश करनेवाले ( मूर्ध्नः ) = मस्तिष्क से आपका मन्थन करनेवाला होता है, अर्थात् आपके ज्ञान के लिए वासनाओं से अनान्दोलित मन तथा ब्रह्माण्ड के सब पदार्थों के ज्ञान का वहन करनेवाला मस्तिष्क दोनों ही आवश्यक हैं—‘निर्लिप्त मन तथा दीप्त मस्तिष्क।’

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु ही सुखों का पूरण करनेवाले तथा सबका भरण करनेवाले हैं। हम अपने हृदयों को विषय-पङ्क से अलिप्त रक्खें, मस्तिष्क को सम्पूर्ण ज्ञान से भरने का प्रयत्न करें—यही प्रभु-दर्शन का मार्ग है।

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    विषय

    नेता के अग्नि से तुलना ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) अग्ने ! तेजस्वी पुरुष ! तू ( पुरीष्यः, असि ) पुरीष्य अर्थात् नाना ऐश्वयों से सम्पन्न है । तू ( विश्वभराः असि ) सूर्य के समान समस्त विश्व का भरण पोषण करने में समर्थ है। ( त्वा ) तुझको ( प्रथमः ) सर्वश्रेष्ट सबसे प्रथम विद्वान् ( अथवा ) प्रजापालक, अहिंसक विद्वान् अग्नि को जिस प्रकार मथकर निकालता है उसी प्रकार परस्पर संघर्ष या प्रतिस्पर्द्धा द्वारा (निः, अमन्थत ) मथन करके प्राप्त करता है । हे ( अग्ने ) तेजस्विन् राजन् ! ( अथर्वा ) अथर्वा व्यापकशील वायु=जिस प्रकार विद्युत् को ( पुष्करात् ) पुष्कर, अन्तरिक्ष से मथन करके प्रकट करता है और जिस प्रकार ( अथर्वा ) अथर्वा प्राण हे अग्ने ! जाठर अग्ने ! तुझको ( पुष्करात् ) पुष्टिकर अन्न से प्राप्त करता है इसी प्रकार । हे अग्ने ! राजन् ! ( वाघतः ) मेधावी ( अथर्वा ) प्रजाओं में से वीर पुरुष को ढूंढ़कर प्राप्त करने में कुशल वेदवित् विद्वान् ( विश्वस्य ) समस्त राष्ट्र के ( मूर्धः ) मूर्धास्थल, उच्चपद पर विराजमान ( पुष्कराद् ) पुष्टिकारी अंश से ही ( त्वाम् निः अमन्थत् ) तुझे अग्नि के समान संघर्ष या स्पर्धा द्वारा मथन करके ही प्राप्त करता है । शत० ६ । ४ । २ । १ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाज ऋषिः । अग्निर्देवता । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जगातील विद्वान माणसांनी शुभ विचाराने व पुरुषार्थाने अग्नी इत्यादीबाबत पदार्थविद्या प्रकट करून सर्व माणसांना शिक्षित करावे.

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    विषय

    विद्वानाने (वैज्ञानिक वा अभियंत्याने) विद्युत कशाप्रकारे उत्पादित करावी, हा विषय पुढील मंत्रात प्रतिपादित आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) क्रिया-कौशल्यात निपुण वा तज्ञ असलेले (तंत्रज्ञ) विद्वान, तुम्ही (वाघत:) शास्त्रज्ञ आहात. (पुरीष्य:) (आपल्या शोध व अविष्कारांदीद्वारे) पशूंना सुख देणारे (असि) आहात. (त्वा) तुम्हाला (अथर्वा) अहिंसक व रक्षक (प्रथम:) उत्तम (विश्वभरा:) आणि सर्वांना पोषक असा तो विद्वान, (विश्वस्म) समस्त जगाचा (मूर्घ्न:) शिराप्रमाणे म्हणजे सर्वोच्च आहे, तो (पुष्करात्) अंतरिक्षापासून (अधि) जवळ असणार्‍या (वा त्यात असणार्‍या) अग्नीला (विद्युतेला) निरमन्थत्) नित्य मंथन करून ग्रहण करतो, म्हणून त्यास ऐश्वर्य प्राप्त होते. (तुम्हीही त्याच्याप्रमाणे कार्य करून विद्युत प्राप्त करा) ॥32॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या संसारात जे जे विद्यावान पुरुष आहेत, त्यांनी आपल्या चिंतन व उत्तम विचारशक्तीद्वारे तसे श्रम पुरुषार्थाद्वारे अग्नी आदींची पदार्थ विद्या (भौतिकशास्त्र) प्रकट करावी आणि ती विद्या सर्व मनुष्यांना सांगावी वा शिकवावी ॥32॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, well versed in religious lore, thou art the care-taker of cattle. The harmless and advanced well read person, the nourisher of all, accepts thee, having derived electricity from the sky, high above the world.

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    Meaning

    Agni, fire/electric energy, present in everything, you are the sustainer of the world. The first man of highest knowledge of reality, ‘Atharva’, explores you on top of the world, collects you and brings you down from the sky.

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    Translation

    O fire, you belong to cattle and are sustainer of all. At the first instance, the fire-technician produces you by attrition. (1) O fire, the fire-technician produces you by attrition out of water, the head of the sustainer of the universe. (2)

    Notes

    Atharva, an ancient seer, who first obtained fire and instituted Agnipiija, Fire-worship, fire technician. आपो वै पुष्करं प्राणोऽथर्वा (शतपथ, VI. 4. 2. 2), puskara is the waters and atharva is the vital force. Vàghatah, the wise; वाघ इति मेधविनाम् (Nigh. 3. 15); vdgha means wise. Niramanthata, has churned out; produced by friction or attrition.

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    बंगाली (1)

    विषय

    বিদ্বান্ বিদ্যুতং কথমুৎপাদয়েদিত্যাহ ॥
    বিদ্বান্ পুরুষ বিদ্যুৎ কেমন ভাবে উৎপন্ন করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) ক্রিয়ার কুশলতা প্রতিপন্নকারী বিদ্বান্ ! (বাঘতঃ) শাস্ত্রবিৎ আপনি (পুরীষ্যঃ) পশুদিগের সুখদায়ক (অসি) হন সেই (ত্বা) আপনাকে (অথর্বা) রক্ষক (প্রথমঃ) উত্তম (বিশ্বভরাঃ) সকলের পোষক বিদ্বান্ (বিশ্বস্য) সব সংসারের (মূর্ধ্নঃ) ঊপর বর্ত্তমান (পুষ্করাৎ) অন্তরিক্ষ হইতে (অধি) সমীপ অগ্নিকে (নিরমন্থৎ) নিত্য মন্থন করিয়া গ্রহণ করে সে ঐশ্বর্য্য লাভ করে ॥ ৩২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যাহারা এই জগতে বিদ্বান্ পুরুষ হইবেন তাঁহারা স্বীয় সুষ্ঠু বিচার এবং পুরুষকার দ্বারা অগ্নি আদির পদার্থ বিদ্যাকে প্রসিদ্ধ করিয়া সকল মনুষ্যদিগকে শিক্ষা দিবেন ॥ ৩২ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    পু॒রী॒ষ্যো᳖ऽসি বি॒শ্বভ॑রা॒ऽঅথ॑র্বা ত্বা প্রথ॒মো নির॑মন্থদগ্নে ।
    ত্বাম॑গ্নে॒ পুষ্ক॑রা॒দধ্যথ॑র্বা॒ নির॑মন্থত মূ॒র্ধ্নো বিশ্ব॑স্য বা॒ঘতঃ॑ ॥ ৩২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    পুরীষ্য ইত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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