Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 11

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 28
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - प्रकृतिः स्वरः - धैवतः
    96

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑सवेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। पृ॒थि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वत् ख॑नामि। ज्योति॑ष्मन्तं त्वाग्ने सु॒प्रती॑क॒मज॑स्रेण भा॒नुना॒ दीद्य॑तम्। शि॒वं प्र॒जाभ्योऽहि॑ꣳसन्तं पृथि॒व्याः स॒धस्था॑द॒ग्निं पु॑री॒ष्यमङ्गिर॒स्वत् ख॑नामः॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। स॒वि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒ना॒मि॒। ज्योति॑ष्मन्तम्। त्वा। अ॒ग्ने॒। सु॒प्रती॑क॒मिति॑ सु॒ऽप्रती॑कम्। अज॑स्रेण। भा॒नुना॑। दीद्य॑तम्। शि॒वम्। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑। अहि॑ꣳसन्तम्। पृ॒थि॒व्याः। स॒धस्था॒दिति॑ स॒धऽस्था॑त्। अ॒ग्निम्। पु॒री॒ष्य᳖म्। अ॒ङ्गि॒र॒स्वत्। ख॒ना॒मः॒ ॥२८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेश्विनोर्बाहुभ्याम्पूष्णो हस्ताभ्याम् । पृथिव्याः सधस्थादग्निं पुरीष्यमङ्गिरस्वत्खनामा। ज्योतिष्मन्तन्त्वाग्ने सुप्रतीकमजस्रेण भानुना दीद्यतम् । शिवम्प्रजाभ्यो हिँसन्तँ पृथिव्या सधस्थादग्निम्पुरीष्यमङ्गिरस्वत्खनामः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। पृथिव्याः। सधस्थादिति सधऽस्थात्। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। खनामि। ज्योतिष्मन्तम्। त्वा। अग्ने। सुप्रतीकमिति सुऽप्रतीकम्। अजस्रेण। भानुना। दीद्यतम्। शिवम्। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः। अहिꣳसन्तम्। पृथिव्याः। सधस्थादिति सधऽस्थात्। अग्निम्। पुरीष्यम्। अङ्गिरस्वत्। खनामः॥२८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्याः किं कृत्वा कस्माद् विद्युतं गृह्णीयुरित्याह॥

    अन्वयः

    हे अग्ने शिल्पविद्याविद्विद्वन्! यथाऽहं सवितुर्देवस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यां त्वा पुरस्कृत्य पृथिव्याः सधस्थात् पुरीष्यं ज्योतिष्मन्तमजस्रेण भानुना दीद्यतं पुरीष्यमग्निमङ्गिरस्वत् खनामि यथा त्वा त्वामाश्रिता वयं पृथिव्याः सधस्थादङ्गिरस्वदहिंसन्तं पुरीष्यं प्रजाभ्यः शिवमग्निं खनामस्तथा सर्व आचरन्तु॥२८॥

    पदार्थः

    (देवस्य) प्रकाशमानस्य (त्वा) त्वाम् (सवितुः) सर्वस्योत्पादकस्येश्वरस्य (प्रसवे) प्रसूतेऽस्मिन् संसारे (अश्विनोः) द्यावापृथिव्योराकर्षणधारणाभ्यामिव (बाहुभ्याम्) (पूष्णः) प्राणस्य बलपराक्रमाभ्यामिव (हस्ताभ्याम्) (पृथिव्याः) (सधस्थात्) सहस्थानात् (अग्निम्) विद्युतम् (पुरीष्यम्) सुखैः पूरकेषु भवम् (अङ्गिरस्वत्) वायुवद्वर्त्तमानम् (खनामि) निष्पादयामि (ज्योतिष्मन्तम्) बहूनि ज्योतींषि विद्यन्ते यस्ंिमस्तम् (त्वा) त्वाम् (अग्ने) भूगर्भादिविद्याविद्विद्वन् (सुप्रतीकम्) सुष्ठु प्रतियन्ति सुखानि यस्मात्तम् (अजस्रेण) निरन्तरेण (भानुना) दीप्त्या (दीद्यतम्) देदीप्यमानम् (शिवम्) मङ्गलमयम् (प्रजाभ्यः) प्रसूताभ्यः (अहिंसन्तम्) अताडयन्तम् (पृथिव्याः) अन्तरिक्षात् (सधस्थात्) सहस्थानात् (अग्निम्) वायुस्थं विद्युतम् (पुरीष्यम्) पालकेषु साधनेषु साधुम् (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मवायुवद्वर्त्तमानम् (खनामः) विलिखामः। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.४.१-२ व्याख्यातः]॥२८॥

    भावार्थः

    ये राजप्रजाजनाः सर्वत्र स्थितं विद्युद् रूपमग्निं सर्वेभ्यः पदार्थेभ्यः साधनोपसाधनैः प्रसिद्धीकृत्य कार्येषु प्रयुञ्जते, ते शङ्करमैश्वर्य्यं लभन्ते। नहि किञ्चिदपि प्रजातं वस्तु विद्युद्व्याप्त्या विना वर्त्तत इति विजानन्तु॥२८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य क्या करके किस पदार्थ से बिजुली का ग्रहण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) भूगर्भ तथा शिल्पविद्या के जानने हारे विद्वान्! जैसे मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्न करने हारे (देवस्य) प्रकाशमान ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये संसार में (अश्विनोः) आकाश और पृथिवी के (बाहुभ्याम्) आकर्षण तथा धारण रूप बाहुओं के समान और (पूष्णः) प्राण के (हस्ताभ्याम्) बल और पराक्रम के तुल्य (त्वा) आप को आगे करके (पृथिव्याः) भूमि के (सधस्थात्) एक स्थान से (पुरीष्यम्) पूर्ण सुख देनेहारे (ज्योतिष्मन्तम्) बहुत ज्योति वाले (अजस्रेण) निरन्तर (भानुना) दीप्ति से (दीद्यतम्) अत्यन्त प्रकाशमान (पुरीष्यम्) सुन्दर रक्षा करने (अग्निम्) वायु में रहने वाली बिजुली को (अङ्गिरस्वत्) वायु के समान (खनामि) सिद्ध करता हूं और जैसे (त्वा) आप का आश्रय लेके हम लोग (पृथिव्याः) अन्तरिक्ष के (सधस्थात्) एक प्रदेश से (अङ्गिरस्वत्) सूत्रात्मा वायु के समान वर्त्तमान (अहिंसन्तम्) जो कि ताड़ना न करे ऐसे (पुरीष्यम्) पालनेहारे पदार्थों में उत्तम (प्रजाभ्यः) प्रजा के लिये (शिवम्) मङ्गलकारक (अग्निम्) अग्नि को (खनामः) प्रकट करते है, वैसे सब लोग किया करें॥२८॥

    भावार्थ

    जो राज्य और प्रजा के पुरुष सर्वत्र रहने वाले बिजुली रूपी अग्नि को सब पदार्थों से साधन तथा उपसाधनों के द्वारा प्रसिद्ध करके कार्य्यों में प्रयुक्त करते हैं, वे कल्याणकारक ऐश्वर्य्य को प्राप्त होते हैं। कोई भी उत्पन्न हुआ पदार्थ बिजुली की व्याप्ति के बिना खाली नहीं रहता, ऐसा तुम सब लोग जानो॥२८॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    आनन्द एवं शक्ति

    पदार्थ

    १. गृत्समद कहता है कि मैं ( त्वा ) = तुझे, अर्थात् प्रत्येक पदार्थ को ( सवितुः देवस्य ) = उस उत्पादक देव की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में ग्रहण करता हूँ। उसका आदेश यही तो है कि ‘ओदन एव ओदनं प्राशीत्’ केवल यह अन्न का विकार भौतिक शरीर ही ओदन को खाये, अर्थात् शरीर की आवश्यकतानुसार ही भोजन करना—न अधिक, न कम बस, मात्रा में। 

    २. ( अश्विनोः बहुभ्याम् ) = प्राणापान के प्रयत्न से पदार्थों को ग्रहण करूँ। मैं सेतमैंत किसी वस्तु को न लूँ। 

    ३. ( पूष्णो हस्ताभ्याम् ) = पूषण के हाथों से ही लूँ, अर्थात् जितना पोषण के लिए पर्याप्त हो उतना ही मैं इन भौतिक वस्तुओं का स्वीकार करूँ। 

    ४. इस प्रकार इन भौतिक भोगों में आसक्त न हुआ-हुआ मैं ( पृथिव्याः सधस्थात् ) = इस शरीर के सधस्थ से, अर्थात् हृदयदेश से [ यह हृदय ही जीवात्मा व परमात्मा का मिलकर रहने का स्थान है ] ( अग्निम् ) =  उस सब उन्नतियों के साधक ( पुरीष्यम् ) = [ पृणाति सुखम् ] सुख-प्राप्ति में उत्तम प्रभु को ( खनामि ) = उसी प्रकार खोजता हूँ जैसेकि ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् लोग खोजा करते हैं। वस्तुतः जो भी व्यक्ति प्रभु का खोजनेवाला बनता है वह भोगों में आसक्त न होने के कारण ‘अङ्गिरस्’ बनता ही है, उसका शरीर रसमय अङ्गोंवाला बना रहता है। 

    ५. हे ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( त्वा ) = हम उस तुझे खोजते हैं जोकि ( ज्योतिष्मन्तम् ) = ज्योतिवाले हैं। आपको प्राप्त करके हमारी ज्ञान की ज्योति दीप्त होती है। 

    ६. ( सुप्रतीकम् ) = आप उत्तम मुखवाले हैं। आपका स्वरूप तेजस्वी है। भक्त आपको तेजोमय रूप में ही देखता है। 

    ७. ( अजस्रेण भानुना दीद्यतम् ) = निरन्तर दीप्ति से आप देदीप्यमान हैं। 

    ८. ( शिवं प्रजाभ्यः ) = प्रजाओं के लिए आप कल्याण करनेवाले हैं। 

    ९. ( अहिंसन्तम् ) = आप हिंसा नहीं होने देते। 

    १०. ( पृथिव्याः सधस्थात् ) = इस पार्थिव शरीर के मिलकर रहने के स्थान से, अर्थात् हृदयदेश से ( पुरीष्यम् ) = सब सुखों के पूरण करनेवाले आपको ( अङ्गिरस्वत् ) = अङ्गिरस् की भाँति ( खनामः ) = खोजते हैं। हृदयदेश में ध्यान से आपका दर्शन करके अनिर्वचनीय आनन्द को अनुभव करते हैं और अङ्ग-अङ्ग में रस के सञ्चार से अङ्गिरस् बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ — इस ज्योतिर्मय प्रभु का दर्शन ही हमारे जीवन का ध्येय हो। इसी में आनन्द है, इसी में अङ्ग-प्रत्यङ्ग की शक्ति का मूल है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    नेता का प्राप्त करना ।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! विद्वन् ! ( सवितुः देवस्य प्रसवे ) सर्वप्रेरक देव, राजा और परमेश्वर के शासन में रहकर ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) इस संसार में द्यौ, पृथिवी के धारण और आकर्षण के समान राजा और प्रजा और स्त्री और पुरुष दोनों के ( बाहुभ्याम् ) बाहुओं से और ( पूष्ण: )पुष्टिकारक, प्राण के बल और पराक्रम के समान पोषक राजा के बल पराक्रम स्वरूप ( हस्ताभ्याम् ) हनन करने के साधनों से ( अंगिरत्वत् ) शरीर में विद्यमान प्राणवायु, अन्तरिक्ष में व्यापक वायु या आदित्य के समान बलवान् तेजस्वी, ( पुरीष्यम्) राष्ट्र के पूर्ण करने वाले साधनों से सम्पन्न, (अग्निम् ) अग्नि के समान तेजस्वी पुरुष को (पृथिव्याः सधस्थात् ) पृथिवी के, पृथिवी निवासी प्रजाजन के एकत्र होने के सभाभवन रूप स्थान से ( खनामि ) पृथिवी से खोदकर जिस प्रकार अंग में रसस्वरूप, पुष्टिकारक, पशव्य अग्नि अर्थात् पशूपयोगी घास आदि पदार्थ को या ( अङ्गिरस्वत् ) तेजोमय शोभा जनक सुवर्णादि धातु को खना जाता है उसी प्रकार राजा को मैं मुख्य पुरोहित प्रजा की परिषद् में छुपे हुए गुप्त वीर्यवान्, उत्तम पुरुष को ऊपर उठाता, मानो नरसभा में से खोदता हूं, उसको ऊपर उठाता हूं, उच्च पद प्रदान करता हूँ । हे ( अग्ने ) अग्ने ! तेजस्वी पुरुष ! ( सुप्रतीकम् ) सुन्दर शोभावान् ( अजस्त्रेण भानुना ) निरन्तर कान्ति, दीप्ति से ( दीद्यतम् ) चमकनेवाले, ( ज्योतिष्मन्तम् ) ज्योतिष्मान् सूर्य के समान देदीप्यमान, कान्तिमान्, यशस्वी, तेजस्वी ऐश्वर्यवान्, ( प्रजाभ्यः ) प्रजाओं के लिये ( शिवं ) कल्याणकारी, (अहिंसन्तम् ) प्रजा का नाश न करते हुए (त्वा) तुझको ( पृथिव्या: सधस्थात् ) इस पृथिवी के ऊपर के निवासियों के एकत्र होने के सभास्थान से ( अंगिरस्वत् पुरीष्यम् अग्निम् ) अंगारों के समान जाज्वल्यमान, समृद्धि से सम्पन्न, अग्रणी नेता को ( खनाम: ) रत्न सुवर्णादि के समान ऊपर खोदते, निकालते, उच्च पद पर लाते हैं । शत० ६ । ४ । १ । २ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिः साध्या वा ऋषयः।अग्निर्देवता । भुरिक् प्रकृतिः । धैवतः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    ज्या राज्यातील प्रजा पुरुष सर्वत्र असलेल्या विद्युतरूपी अग्नीला सर्व पदार्थांमधून साधन व उपसाधनांद्वारे प्रकट करून कार्यात युक्त करतात त्यांना ऐश्वर्य प्राप्त होऊन त्यांचे कल्याण होते. त्यामुळे प्रत्येक पदार्थात विद्युत असते हे सर्व लोकांनी जाणावे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    मनुष्यांनी कोणत्या रीतीने व कोणत्या पदार्थापासून विद्युत ग्रहण करावी, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (अग्ने) भूगर्भाविद्या व शिल्पविद्येचे ज्ञाता हे विद्वान (वैज्ञानिक वा अभियंता) (सवितु:) सर्व जगाचा उत्पत्तिकर्ता (देवस्य) परमेश्वराने (प्रसवे) उत्पन्न केलेल्या या संसारात मी (एक नागरिक) आपणास (अश्विनो:) आकाश आणि पृथ्वीच्या (बाहुभ्याम्) आकर्षण आणि धारण शक्ती या दोन बाहुप्रमाणे आणि (पूष्ण:) प्राण्यांच्या (हस्ताभ्याम्) बल आणि पराक्रमाप्रमाणे (त्वा) आपणास मानतो (आपण आकाश, पृथ्वी व प्राणशक्ती यांचे माता असून आमचे मार्गदर्शक आहात) (आपण दाखविलेल्या पद्धतीने) (पृथिव्या:) भूमीच्या (सधस्थात्) एक स्थानाहून (दुसर्‍या स्थानास जाणार्‍या तसेच (पुरीष्यम्) पूर्ण सुखदायक, (ज्योतिष्मन्तम्) अतीव ज्योतिमान (अजस्रेण) निरंतर असणार्‍या (भानुमा) दीप्तीने (दीघतम्) अत्यंत प्रकाशमान असणार्‍या आणि (पुरीष्णम्) रक्षा करणार्‍या (अग्निम्) आणि वायूमध्ये विद्यमान असलेल्या विद्युतेला (अद्विरस्वत्) वायूप्रमाणे (खनामि) सिद्ध प्रकट मी (एक नागरिक) वा प्राप्त करीत आहे. (वैज्ञानिकांनी वायुमंडळात विद्यमान गुप्त अशा विजेला शोधून काढले. तिच्यापासून मी उपभोग घेत आहे) ज्याप्रमाणे (त्वा) तुमचा आश्रयात राहून आम्ही (नागरिक)(पृथिव्या:) अंतरिक्षाच्या (सधस्थात्) एका प्रदेशापासून (दुसर्‍यास्थानापर्यंत म्हणजे) (अड्गिरस्वत्) सूत्रात्म वायूप्रमाणे सर्वत्र विद्यमान (अहिसन्तम्) दु:ख वा ताडन न करणार्‍या (हानिकारक नसलेल्या) आणि (पुरीष्यम्) पालन करणार्‍या (अग्निम्) आणि वायूमध्ये विद्यमान असलेल्या विद्युतेला (अग्निरस्वत्) वायूप्रमाणे (खनामि) सिद्ध प्रकट मी ( एक नागरिक) वा प्राप्त करीत आहे. (वैज्ञानिकांनी वायुमंडळात विद्यमान गुप्त अशा विजेला शोधून काढले. तिच्यापासून मी उपभोग घेत आहे) ज्याप्रमाणे (त्वा) तुमचा आश्रयात राहून आम्ही (नागरिक) (पृथिव्या:) अंतरिक्षाच्या (सधस्थात्) एका प्रदेशापासून (दुसर्‍या स्थानापर्यंत म्हणजे) (अड्गिरस्वत्) सूत्रात्मवायूप्रमाणे सर्वत्र विद्यमान (अहिंसन्तम्) दु:ख वा ताडन न करणार्‍या (हानिकारक नसलेल्या आणि (परिष्यम्) पालन करणार्‍या सर्व पदार्थांमध्ये (अन्न, जल, वायू आदी) सर्वोत्तम अशा (शिवम्) मंगलकारी (अग्निम्) अग्नीला (प्रजाभ्य:) प्रजेसाठी (रवनाम:) प्रकट करतो (वायुमंडळात अदृश्य विद्युतशक्तीला दृश्य प्रकाशरुपात आणतो आणि संततीसाठी उपयोगात आणतो) आमच्याप्रमाणेच सर्व लोकांनी देखील असे करावे. ॥28॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जे राजपुरुष व प्रजाजन सर्वत्र विद्यमान विद्युतरुप अग्नी सर्व पदार्थांपासून अनेक साधन व उपसाधनांद्वारे प्रकट करून घेऊन त्याचा विविध कार्यात प्रयोग करतात, ते लोकच कल्याणकारी ऐश्वर्य प्राप्त करतात. तुम्ही सर्व लोकांनी हे चांगल्याप्रकारे जाणून व समजून घ्यावे की जगात कोणताही पदार्थ विद्युतेच्या व्याप्तीबाहेर नाही. (ज्यात विद्युतशक्ती नाही, अशा एकही पदार्थ नाही.) ॥28॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O geologist and artisan, just as I, in this world created by the Effulgent Lord, like the powers of attraction and retention of the atmosphere and earth, and like the force and swiftness of air, following in your wake, explore from a part of the earth, electricity, giver of full comfort, luminous, resplendent with imperishable lustre, gracious like air; and just as, with your assistance, we, explore from a part of the atmosphere, electricity, pervading like refined air, doing no harm, excellent amongst all nourishing substances, and administering to the prosperity of the people, so should all do.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    In this yajnic world of Lord Savita’s creation, (in the field of science and technology), with the attraction- sustenance power of the earth and the sun, and the positive-negative circuit of universal energy, from the womb of the earth and the sky, I discover and develop the heat and light of agni, immanent and beneficent power of nature present like air everywhere. Agni, lord of light, by your grace we discover and develop the power of agni, electricity from the midst of the sky, since it is present universally like the breath of air — agni which is a source of light, bright and beautiful, blazing by the splendour of the eternal sun, injuring none, and a means of comfort and happiness for all the people.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    At the impulsion of the creator God, with arms of the healers and with hands of the nourisher, I dig you up the brilliant cow-dung fire. (1) O fire divine, full of light, fine in appearance, shining with imperishable lustre, gracious to all the creatures, and never injuring, we dig up the brilliant cow-dung fire from the lap of the earth. (2)

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    মনুষ্যাঃ কিং কৃত্বা কস্মাদ্ বিদ্যুতং গৃহ্ণীয়ুরিত্যাহ ॥
    মনুষ্য কী করিয়া কোন্ পদার্থ হইতে বিদ্যুতের গ্রহণ করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অগ্নে) ভূগর্ভ ও শিল্পবিদ্যাবিদ্ বিদ্বান্ ! যেমন আমি (সবিতুঃ) সর্ব জগতের উৎপন্নকারী (দেবস্য) প্রকাশমান ঈশ্বরের (প্রসবে) উৎপন্ন কৃত সংসারে (অশ্বিনোঃ) আকাশ ও পৃথিবীর (বাহুভ্যাম্) আকর্ষণ তথা ধারণ রূপ বাহুদিগের সমান এবং (পূষ্ণঃ) প্রাণের (হস্তাভ্যাম্) বলও পরাক্রম তুল্য (ত্বা) আপনাকে অগ্রে করিয়া (পৃথিব্যাঃ) ভূমির (সধস্থাৎ) এক স্থান হইতে (পুরীষ্যম্) পূর্ণ সুখদায়ক (জ্যোতিষ্মন্তম্) বহু জ্যোতি সম্পন্ন (অজস্রেণ) নিরন্তর (ভানুনা) দীপ্তি দ্বারা (দীদ্যতম্) অত্যন্ত প্রকাশমান (পুরীষ্যম্) সুন্দর রক্ষাকারক (অগ্নিম্) বায়ুতে নিবাসকারী বিদ্যুৎকে (অঙ্গিরস্বৎ) বায়ুসদৃশ (খনামি) সিদ্ধ করি এবং যেমন (ত্বা) আপনার আশ্রয় লইয়া আমরা (পৃথিব্যাঃ) অন্তরিক্ষের (সধস্থাৎ) এক প্রদেশ হইতে (অঙ্গিরস্বৎ) সূত্রাত্মা বায়ুসদৃশ বর্ত্তমান (অহিংসন্তম্) যাহা তাড়না করেনা এইরূপ (পুরীষ্যম্) পরিপালক পদার্থগুলিতে উত্তম (প্রজাভ্যঃ) প্রজা হেতু (শিবম্) মঙ্গলকারক (অগ্নিম্) অগ্নিকে (খনামঃ) প্রকট করে সেইরূপ সকলেই করিবে ॥ ২৮ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- রাজ্য ও প্রজাগণ সর্বত্র নিবাসকারী বিদ্যুৎরূপী অগ্নিকে সব পদার্থগুলি হইতে সাধন ও উপসাধনের দ্বারা প্রসিদ্ধ করিয়া কার্য্যে প্রযুক্ত করে তাহারা কল্যাণকর ঐশ্বর্য্য প্রাপ্ত হইয়া থাকেন । কোন উৎপন্ন পদার্থ বিদ্যুতের ব্যাপ্তি বিনা রিক্ত থাকেনা এইরকম সব ব্যক্তি জানিয়া লইবে ॥ ২৮ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑সবে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ । পৃ॒থি॒ব্যাঃ স॒ধস্থা॑দ॒গ্নিং পু॑রী॒ষ্য᳖মঙ্গির॒স্বৎ খ॑নামি । জ্যোতি॑ষ্মন্তং ত্বাগ্নে সু॒প্রতী॑ক॒মজ॑স্রেণ ভা॒নুনা॒ দীদ্য॑তম্ । শি॒বং প্র॒জাভ্যোऽহি॑ꣳসন্তং পৃথি॒ব্যাঃ স॒ধস্থা॑দ॒গ্নিং পু॑রী॒ষ্য᳖মঙ্গির॒স্বৎ খ॑নামঃ ॥ ২৮ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবস্য ত্বেত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । প্রকৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top