यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 26
परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्र॑ꣳ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑ताम्॥२६॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। त्वा॒। अ॒ग्ने॒। पुर॑म्। व॒यम्। विप्र॑म्। स॒ह॒स्य॒। धी॒म॒हि॒। धृ॒षद्व॑र्ण॒मिति॑ धृ॒षत्ऽव॑र्णम्। दि॒वेदि॑व॒ इति॑ दि॒वेऽदि॑वे। ह॒न्तार॑म्। भ॒ङ्गु॒राव॑ताम्। भ॒ङ्गु॒रव॑ता॒मिति॑ भङ्गु॒रऽव॑ताम् ॥२६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परित्वाग्ने पुरँवयं विप्रँ सहस्य धीमहि । धृषद्वर्णन्दिवेदिवे हन्तारम्भङ्गुरावताम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
परि। त्वा। अग्ने। पुरम्। वयम्। विप्रम्। सहस्य। धीमहि। घृषद्वर्णमिति धृषत्ऽवर्णम्। दिवेदिव इति दिवेऽदिवे। हन्तारम्। भङ्गुरावताम्। भङ्गुरवतामिति भङ्गुरऽवताम्॥२६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कीदृशः सेनापतिः कार्य्य इत्याह॥
अन्वयः
हे सहस्याऽग्ने! यथा वयं दिवेदिवे भङ्गुरावतां पुरमग्निमिव हन्तारं धृषद्वर्णं विप्रं त्वा परिधीमहि तथा त्वमस्मान् धर॥२६॥
पदार्थः
(परि) (त्वा) त्वाम् (अग्ने) विद्यया प्रकाशमान (पुरम्) येन सर्वान् पिपर्त्ति तत् (वयम्) (विप्रम्) विद्वांसम् (सहस्य) य आत्मनः सहो बलमिच्छति तत्सम्बुद्धौ (धीमहि) धरेम। अत्र डुधाञ् धातोर्लिङ आर्धधातुकत्वाच्छबभावः। (धृषद्वर्णम्) धृषत्प्रगल्भो दृढो वर्णो यस्य तम् (दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (हन्तारम्) (भङ्गुरावताम्) कुत्सिता भङ्गुराः प्रहताः प्रकृतयो विद्यन्ते येषां तेषाम्। [अयं मन्त्रः शत॰६.३.३.२५ व्याख्यातः]॥२६॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। राजप्रजाजनैर्न्यायेन प्रजारक्षकोऽग्निवच्छत्रुहन्ता सर्वदा सुखप्रदः सेनेशो विधेयः॥२६॥
हिन्दी (3)
विषय
कैसा सेनापति करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (सहस्य) अपने बल को चाहने वाले (अग्ने) अग्निवत् विद्या से प्रकाशमान विद्वान् पुरुष! जैसे (वयम्) हम लोग (दिवेदिवे) प्रतिदिन (भङ्गुरावताम्) खोटे स्वभाव वालों के (पुरम्) नगर को अग्नि के समान (हन्तारम्) मारने (धृषद्वर्णम्) दृढ़ सुन्दर वर्ण से युक्त (विप्रम्) विद्वान् (त्वा) आपको (परि) सब प्रकार से (धीमहि) धारण करें, वैसे तू हम को धारण कर॥२६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। राजा और प्रजा के पुरुषों को चाहिये कि न्याय से प्रजा की रक्षा करने, अग्नि के समान शत्रुओं को मारने और सब काल में सुख देने हारे पुरुष को सेनापति करें॥२६॥
विषय
परितो-धारण—स्थितप्रज्ञता
पदार्थ
१. गत मन्त्र का ‘सोमक’ = विनीत प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके पूर्णरूप से अपना रक्षण कर पाता है, उसी प्रकार जैसेकि माता की गोद में आत्मार्पण करनेवाला बालक। इस अर्पण को करनेवाला यह ‘पायुः’ [ पा रक्षणे ] नामवाला होता है। यह कहता है कि १. हे ( अग्ने ) = हमारी सब उन्नतियों के साधक प्रभो! ( वयम् ) = हम ( त्वा ) = आपको ( परिधीमहि ) = अपने चारों ओर धारण करते हैं। जो आप ३. ( पुरम् ) = [ पॄ पालनपूरणयोः ] अपनी विविध क्रियाओं के द्वारा हमारा पालन व पूरण करनेवाले हैं। आपने हमारे पालन के लिए अनेकविध ओषधि-वनस्पतियों का निर्माण किया है।
४. ( विप्रम् ) = आप ज्ञानी हो, क्रान्तदर्शी = कवि हो। ज्ञान के द्वारा विशेषरूप से सबका पूरण करनेवाले हो। ज्ञानाग्नि ही तो दोषों को विच्छिन्न करती है।
५. ( सहस्य ) = हे प्रभो! आप सहस् में उत्तम हो अथवा सहस् में निवास करनेवाले हो। जिस पुरुष में सहनशक्ति होती है उसी में आपका निवास है।
६. ( धृषद्ववर्णम् ) = [ धृष्णोतीति धृषन् प्रगल्भो वर्णो यस्य तम् असह्यरूपम्—म० ] असह्य तेजवाले आप हैं। आपके तेज के सामने अन्य सब तेज पराभूत हो जाते हैं।
७. इस तेज से ही आप ( दिवे-दिवे ) = प्रति-दिन ( भङ्गुरावताम् ) = तोड़-फोड़ के कामों में लगे हुए राक्षसों के ( हन्तारम् ) = नष्ट करनेवाले हैं। अथवा ( भंगुर ) = अनवस्थित मनवालों के—डाँवाँडोल मनोवृत्तिवालों के आप समाप्त करनेवाले हैं। स्थितप्रज्ञ दैवीवृत्तिवाला व्यक्ति ही आपका रक्षणीय होने से ‘पायु’ [ one who is protected ] है।
भावार्थ
भावार्थ — वे प्रभु ‘अग्नि-पुरं-विप्र-सहस्य-धृषद्वर्ण व भंगुरावत्—हन्ता’ हैं। हम भंगुर-वृत्तिवाले न बनकर स्थितप्रज्ञ बनें और प्रभु के रक्षणीय हों। प्रभु को परितः धारण करनेवाला ही प्रभु का रक्षणीय होता है।
विषय
उसके अधीन वीर पुरुषों की नियुक्ति ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! अग्रणी, अग्नि के समान तेजस्विन्! राजन् ! हे (सहस्य ) अपने बल को चाहनेवाले ! ( वयम् ) हम प्रजा के लोग ( विप्रम्) विविध प्रकारों से राष्ट्र को पूर्ण करने और ( पुरम् ) नगरकोट के समान पालन करने में समर्थ ( दिवेदिवे ) प्रतिदिन, नित्य ( भङ्गु- रावताम् ) विनाश करने योग्य, दुष्ट स्वभावों वाले दुष्ट पुरुषों के ( हन्तारम् ) नाश करनेवाले और (धृषद्वर्णम् ) प्रगल्भ, तीक्ष्ण, असह्य वर्ण अर्थात् स्वभाव वाले, तेजस्वी ( त्वा ) तुझको अपने ( परिधीमहि ) चारों तरफ रक्षा करने के लिये नियुक्त करते हैं। वीर पुरुषों को रक्षा के लिये चारों तरफ नियुक्त करना चाहिये ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पायुर्ऋषिः । अग्निर्देवता । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. राजा व राजपुरुष यांनी न्यायाने प्रजेचे रक्षण करून अग्नीप्रमाणे शत्रूंचा नाश करून सर्व काळी सुख देणाऱ्या पुरुषाला सेनापती करावे.
विषय
सेनापती कोणास करावे (तो कसा असावा) पुढील मंत्रात हा विषय सांगितला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (सहस्य) बलाच्या निरन्तर वृद्धीची कामना करणार्या (अग्नि) विद्येमुळे अग्नीप्रमाणे प्रकाशमान असणार्या हे विद्वान पुरुषा (हे सेनापती), ज्याप्रमाणे (वयम्) आम्ही (प्रजाजन) (दिवेदिवे) प्रतिदिनीं (भद्नुरावताम्) कपटी स्वभाव असणार्या लोकांच्या (पुरम्) नगराला अग्नीप्रमाणे (इन्तारम्) मारणार्या (नष्ट करणार्या) आणि (धृषद्वर्णम्) धैर्यशील व सुंदर वर्ण असणार्या तसेच (विप्रभ्) विद्यावान असलेल्या (त्वा) आपला (परि) सर्वप्रकारे (धीमहि) धारण करतो (शत्रुनाशक, धैर्यधारी विद्वान मनुष्याला आपला सेनापती म्हणून स्वीकार करतो) त्याप्रमाणे आपणही आम्हाला (प्रजाजनांना) धारण करा (आपले स्वजन मानून आमचे रक्षण करा) ॥26॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. राजा आणि प्रजाजन, यांना पाहिजे की त्यांनी न्यायाने प्रजेचे रक्षण करणार्या, अग्नीप्रमाणे शत्रूला नष्ट करणार्या तसेच सदा सर्वदा सुख देणार्या पुरुषाला सेनापती करावे. ॥26॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, aspirant after power, we unanimously select thee. as our commander, the day by day destroyer of the citadel of our treacherous foes, possessing iron determination, good looking features, and vast knowledge.
Meaning
Agni/Commander of the forces, brilliant, courageous, enduring, awesome, pious and knowledgeable, defender of the weak and destroyer of the wicked, day in and day out we honour you, praise you, thank you in gratitude.
Translation
О adorable Lord, О full of strength, in every respect we meditate on you, who are sustainer of all, wise, of unbearable glare, and destroyer of ficklemindedness. (1)
Notes
Bhanguravatam,भंगुरा: कुत्सिता: प्रव्र्त्त्यो येषां, whose tendencies are evil. Or fickle-minded.
बंगाली (1)
विषय
কীদৃশঃ সেনাপতিঃ কার্য়্য ইত্যাহ ॥
কেমন সেনাপতি করিতে হইবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (সহস্য) স্বীয় বল কামনাকারী (অগ্নে) অগ্নিবৎ বিদ্যাদ্বারা প্রকাশমান বিদ্বান্পুরুষ ! যেমন (বয়ম্) আমরা (দিবেদিবে) প্রতিদিন (ভঙ্গুরাবতাম্) কুৎসিৎ স্বভাবযুক্ত ব্যক্তিদের (পুরম্) নগরকে অগ্নিতুল্য (হন্তারম্) বধ করি, (ধৃষদ্বর্ণম্) দৃঢ় সুন্দর বর্ণযুক্ত (বিপ্রম্) বিদ্বান্ (ত্বা) আপনাকে (পরি) সর্বপ্রকারে (ধীমহি) ধারণ করি সেইরূপ তুমি আমাদিগকে ধারণ কর ॥ ২৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । রাজা ও প্রজাদের উচিত যে, ন্যায়পূর্বক প্রজার রক্ষা কারী, অগ্নি সদৃশ শত্রুদিগকে হত্যা কারী এবং সর্বকালে সুখ প্রদান কারী পুরুষকে সেনাপতি করিবে ॥ ২৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পরি॑ ত্বাগ্নে॒ পুরং॑ ব॒য়ং বিপ্র॑ꣳ সহস্য ধীমহি ।
ধৃ॒ষদ্ব॑র্ণং দি॒বেদি॑বে হ॒ন্তারং॑ ভঙ্গু॒রাব॑তাম্ ॥ ২৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পরি ত্বেত্যস্য পায়ুর্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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