यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 75
ऋषिः - नाभानेदिष्ठ ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - विराट् त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
71
अह॑रह॒रप्र॑यावं॒ भर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॑स्मै। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॒न्तोऽग्ने॒ मा ते॒ प्रति॑वेशा रिषाम॥७५॥
स्वर सहित पद पाठअह॑रह॒रित्यहः॑ऽअहः। अप्र॑याव॒मित्यप्र॑ऽयावम्। भर॑न्तः। अश्वा॑ये॒वेत्यश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒स्मै॒। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। मद॑न्तः। अग्ने॑। मा। ते॒। प्रति॑वेशा॒ इति॒ प्रति॑ऽवेशाः। रि॒षा॒म॒ ॥७५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहर्हरप्रयावम्भरन्तो श्वायेव तिष्ठते घासमस्मै । रायस्पोषेण समिषा मदन्तो ग्ने मा ते प्रतिवेशा रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठ
अहरहरित्यहःऽअहः। अप्रयावमित्यप्रऽयावम्। भरन्तः। अश्वायेवेत्यश्वायऽइव। तिष्ठते। घासम्। अस्मै। रायः। पोषेण। सम्। इषा। मदन्तः। अग्ने। मा। ते। प्रतिवेशा इति प्रतिऽवेशाः। रिषाम॥७५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनगृर्हस्थाः परस्परं कथं वर्त्तेरन्नित्याह॥
अन्वयः
हे अग्ने! अहरहस्तिष्ठतेऽश्वायेवास्मा अप्रयावं घासं भरन्तो रायस्पोषेणेषा संमदन्तः प्रतिवेशाः सन्तो वयं त ऐश्वर्य्यं मा रिषाम॥७५॥
पदार्थः
(अहरहः) प्रतिदिनम् (अप्रयावम्) प्रयुवत्यन्यायं यस्मिन् स प्रयावो न विद्यते प्रयावो यस्मिन् गृहाश्रमे तम् (भरन्तः) धरन्तः (अश्वायेव) यथाश्वाय (तिष्ठते) वर्त्तमानाय (घासम्) भक्ष्यम् (अस्मै) गृहाश्रमाय (रायः) धनस्य (पोषेण) पुष्ट्या (सम्) (इषा) अन्नादिना (मदन्तः) हर्षन्तः (अग्ने) विद्वन् (मा) (ते) तव (प्रतिवेशाः) प्रतीता वेशा धर्मप्रवेशा येषां ते (रिषाम) हिंस्याम। अत्र लिङर्थे लुङ्। [अयं मन्त्रः शत॰६.६.३.८ व्याख्यातः]॥७५॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। गृहस्था यथा अश्वादिपशूनां भोजनार्थं यवदुग्धादिकमश्वपालकाः नित्यं संचिन्वन्ति, तथैश्वर्य्यं समुन्नीय सुखयेयुः। धनमदेन केनचित् सहेर्ष्यां कदाचिन्न कुर्य्युः, परस्योत्कर्षं श्रुत्वा दृष्ट्वा च सदा हृष्येयुः॥७५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर गृहस्थ लोग आपस में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (अग्ने) विद्वन् पुरुष! (अहरहः) नित्यप्रति (तिष्ठते) वर्त्तमान (अश्वायेव) जैसे घोड़े के लिये घास आदि खाने का पदार्थ आगे धरते हैं, वैसे (अस्मै) इस गृहस्थ पुरुष के लिये (अप्रयावम्) अन्याय से पृथक् गृहाश्रम के योग्य (घासम्) भोगने योग्य पदार्थों को (भरन्तः) धारण करते हुए (रायः) धन की (पोषेण) पुष्टि तथा (इषा) अन्नादि से (संमदन्तः) सम्यक् आनन्द को प्राप्त हुए (प्रतिवेशाः) धर्म्मविषयक प्रवेश के निश्चित हम लोग (ते) तेरे ऐश्वर्य्य को (मा रिषाम) कभी नष्ट न करें॥७५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। गृहस्थ मनुष्यों को चाहिये कि जैसे घोड़े आदि पशुओं के खाने के लिये जौ, दूध आदि पदार्थों को पशुओं के पालक नित्य इकट्ठे करते हैं, वैसे अपने ऐश्वर्य्य को बढ़ाके सुख देवें और धन के अहङ्कार से किसी के साथ ईर्ष्या कभी न करें, किन्तु दूसरों की वृद्धि सुन वा देख के सदा आनन्द मानें॥७५॥
विषय
पत्नी पति की प्रतिवेश [ पड़ोसिन ]
पदार्थ
१. गत मन्त्रों में वर्णित पति बड़े यज्ञिय स्वभाव का बनता है। यज्ञ को भुवन की नाभि कहा गया है। इस नाभि [ यज्ञ ] के सदा समीप रहने से यह ‘नाभानेदिष्ठ’ कहलाता है—सदा यज्ञों के समीप निवास करनेवाला। २. घर में पत्नी व गृह के अन्य सभ्य [ members ] इस अग्नि = प्रगतिशील गृहस्थ को उचित भोजन प्राप्त कराने का प्रयत्न करते हैं। वे कहते हैं कि ( अहरहः ) = प्र्रतिदिन ( अप्रयावम् ) = [ अप्रमत्तं यथा स्यात्तथा ] प्रमादरहित होकर हम ( अस्मै ) = इस घर के व्यवहार को सिद्ध करनेवाले के लिए ( घासम् ) = वानस्पतिक भोजन को ( भरन्तः ) = धारण करनेवाले हों। ( तिष्ठते अश्वाय इव ) = यह उस घोड़े के समान है जो मार्ग पर आगे बढ़ता हुआ कुछ देर खाने के लिए खड़ा हुआ है। पति ने सदा श्रमशील होना है, उसके श्रम पर ही घर का ऐश्वर्य निर्भर करता है। घरवालों ने इसके भोजन का ध्यान करना है, जिससे वह अस्वस्थ न हो जाए। ३. इस प्रकार यह श्रमविभाग करके कि ‘पति कमाये और पत्नी उसके स्वास्थ्यजनक भोजनादि का ध्यान करे’, हम ( रायस्पोषेण ) = धन के पोषण से तथा ( इषा ) = अन्न से ( संमदन्तः ) = उत्तम हर्ष को प्राप्त होनेवाले हों। ४. हे ( अग्ने ) = गृहस्थयज्ञ के साधक! ( ते प्रतिवेशा ) = तेरे पड़ोसी बने हुए हम—तेरे समीप रहनेवाले हम ( मा रिषाम ) = आपकी कृपा से कभी हिंसित न हों। स्पष्ट है कि पति-पत्नी ने एक-दूसरे से बहुत दूर नहीं रहना। यही घर को उत्तम बनाने का उपाय है।
भावार्थ
भावार्थ — पति कमानेवाला हो। पत्नी उसके भोजन का उचित ध्यान करनेवाली हो। पत्नी पति से बहुत दूर न रहे।
विषय
अश्व के दृष्टान्त से राजा को पोषण करने का प्रजा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
( तिष्ठते अश्वाय घासम् इव ) घर पर खड़े घोड़े को जिस प्रकार नित्य नियम से, विना नागा घास दिया जाता है उसी प्रकार हे राजन् ! हम लोग( अह: - अहः ) प्रतिदिन ( घासम् ) खाने पीने योग्य भोग्य सामग्री को ( भरन्तः ) प्राप्त करते हुए और तुझे प्रदान करते- हुए ( रायः पोषेण ) धनैश्वर्य की समृद्धि से और ( इषा ) अन्न की समृद्धि से (सम मदन्तः ) अति हर्षित, आनन्द, तृप्त होते हुए हे (अग्ने) गृहपते ! राज्यपते ! हम लोग ( ते प्रतिवेशाः ) तेर पड़ोसी के समान. तेरे में प्रविष्ट, तेरे अधीन, तेरी बनायी धर्म मर्यादाओं में रहते हुए ( मा रिषाम) कभी पीड़ित न हों । शत० ६ । ६ । ३ । ७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठ ऋषिः । अग्निर्देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे घोड्यांसाठी त्याचे मालक खाण्याचे पदार्थ साठवून ठेवतात त्याप्रमाणे गृहस्थांनी आपले ऐश्वर्य वाढवून (सर्वांना) सुख द्यावे. धनाचा अहंकार बाळगून कुणाशी ईर्षेने वागू नये. उलट दुसऱ्याची उन्नती व धन पाहून नेहमी आनंद मानावा.
विषय
यानंतर गृहाश्रमीजनांनी कसे आचरण करावे, याविषयी पुढच्या मंत्रात कथन केले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (अग्ने) विद्वान पुरुष, (अहरह:) नित्यप्रति (तिष्ठते) विद्यमान वा घराचा (अश्वायेव) घोड्यासाठी लोग गवत आदी खाण्याचे पदार्थ त्याच्यासमोर धरतात (घोड्याला घास चारतात) त्याप्रमाणे (अस्मै) या गहस्थासाठी आम्ही (अन्य गृहस्थजन) (अप्रयावम्) अन्यायापासून दूर असलेल्या (न्यायपूर्ण अशा या व्यक्तीच्या) गृहाश्रमाकरिता (घासम्) ‘उपभोग घेण्यास योग्य असे पदार्थ (भरन्त:) धारण करतो वा देतो (आम्ही गृहस्थजन एखाद्या गृहस्थाश्रमाची दुरावस्था वा अभावदशा पाहून त्यास साहाय्य करतो) हे गृहस्था, (राय:) धनाच्या (पोषेण) समृद्धीद्वारे आणि (इषा) अन्य आदी वस्तूद्वारे (संमदन्त:) स्वत: आनंद उपभोगत (प्रतिवेशा:) धर्माविषयीच्या भावनेने आम्ही (ते) तुझ्या समृद्धीला कधी (मारिषाम) नष्ट होऊ देणार नाही. (अभावग्रस्ताला कधी काही कमी पडू देणार नाही, सदैव मदत करू) (अथवा एखाद्या श्रीमंत पण न्यायी गृहस्थाच्या संपत्तीविषयी ईर्षा-द्वेष बाळगून त्याची हानि करणार नाही) ॥75॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहे. गृहस्थजनांना उचित आहे की, जसे घोडे आदी पशुंसाठी (गवत) आणि दूध आदी पदार्थांसाठी गोपालकजन नित्य (गवत, चारा व खाद्य पदार्थ) जमा करतात, त्याप्रमाणे गृहस्थांनी आपल्या घरातील ऐश्वर्य वाढवावे. पण कधीही आपल्या धनामुळे अहंकारग्रस्त होऊन इतरांशी ईर्ष्या-द्वेष करू नये. एवढेच नाही तर अन्यजनांची प्रगती, उन्नत्ती पाहून वा धन-ऐश्वर्य पाहून नेहमी आनंदित असावे. ॥75॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Just as we, with unceasing care bring fodder day after day to a stabled courser, so may we, amassing all the enjoyable objects of life, pleased with food and growth of riches, leading a religious life, never injure this learned householder, fit for domestic life, free from injustice.
Meaning
Agni, learned man of justice and brilliance, just as we bear lovely green grass for a horse in the stables every day, so we bear good and wholesome food and other things to this fair and just house-holder as his partners in good deeds of Dharma. May we, enjoying ourselves with plenty of food and energy, health and wealth with him, never injure the honour and reputation of this noble man out of jealousy.
Translation
Just as a horse kept in a stable is supplied with fodder, so each and every day, without the least negligence we bring fuel to you. Delighting in food and plenty of riches, о adorable Lord, may we, your neighbours, never perish. (1)
बंगाली (1)
विषय
পুনগৃর্হস্থাঃ পরস্পরং কথং বর্ত্তেরন্নিত্যাহ ॥
গৃহস্থগণ পরস্পর কীভাবে আচরণ করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (অগ্নে) বিদ্বান্ পুরুষ ! (অহরহ) প্রতিদিন (তিষ্ঠতে) বর্ত্তমান (অশ্বায়েব) যেমন অশ্ব হেতু তৃণাদি খাদ্য পদার্থ সম্মুখে রাখা হয় সেইরূপ (অস্মৈ) এই গৃহস্থ পুরুষ হেতু (অপ্রয়াবম্) অন্যায় হইতে পৃথক গৃহাশ্রমের যোগ্য (ঘাসম্) ভোগ্য পদার্থ (ভরন্তঃ) ধারণ করিয়া (রায়ঃ) ধনের (পোষেণ) পুষ্টি তথা (ইষা) অন্নাদি দ্বারা (সংমদন্তঃ) সম্যক আনন্দ প্রাপ্ত (প্রতিবেশাঃ) ধর্ম্মবিষয়ক প্রবেশ হেতু নিশ্চিত আমরা (তে) তোমার ঐশ্বর্য্যকে (মা রিষাম) কখনও নষ্ট না করি ॥ ৭৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমালঙ্কার আছে । গৃহস্থ মনুষ্যদিগের উচিত যেমন অশ্বাদি পশুর আহারের জন্য যব, দুগ্ধাদি পদার্থ পশুদিগের পালনকর্ত্তা নিত্য সংগ্রহ করে সেইরূপ নিজস্ব ঐশ্বর্য্য বৃদ্ধি করিয়া সুখবর্দ্ধন করিবে এবং ধনের অহঙ্কারে কাহারও সহিত ঈর্ষা কখনও করিবে না কিন্তু অন্যের বৃদ্ধি শুনিয়া বা দেখিয়া সর্বদা আনন্দ করিবে ॥ ৭৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অহ॑রহ॒রপ্র॑য়াবং॒ ভর॒ন্তোऽশ্বা॑য়েব॒ তিষ্ঠ॑তে ঘা॒সম॑স্মৈ ।
রা॒য়স্পোষে॑ণ॒ সমি॒ষা মদ॒ন্তোऽগ্নে॒ মা তে॒ প্রতি॑বেশা রিষাম ॥ ৭৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অহরহরিত্যস্য নাভানেদিষ্ঠ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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