यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 41
ऋषिः - विश्वमना ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - भुरिगनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
68
उदु॑ तिष्ठ स्वध्व॒रावा॑ नो दे॒व्या धि॒या। दृ॒शे च॑ भा॒सा बृ॑ह॒ता सु॑शु॒क्वनि॒राग्ने॑ याहि सुश॒स्तिभिः॑॥४१॥
स्वर सहित पद पाठउत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। ति॒ष्ठ॒। स्व॒ध्व॒रेति॑ सुऽअध्वर। अव॑। नः॒। दे॒व्या। धि॒या। दृ॒शे। च॒। भा॒सा। बृ॒ह॒ता। सु॒शु॒क्वनि॒रिति॑ सुऽशु॒क्वनिः॑। आ। अ॒ग्ने॒। या॒हि॒। सु॒श॒स्तिभि॒रिति॑ सुश॒स्तिऽभिः॑ ॥४१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उदु तिष्ठ स्वध्वरावा नो देव्या धिया । दृशे च भासा बृहता शुशुक्वनिराग्ने याहि सुशस्तिभिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
उत्। ऊँ इत्यूँ। तिष्ठ। स्वध्वरेति सुऽअध्वर। अव। नः। देव्या। धिया। दृशे। च। भासा। बृहता। सुशुक्वनिरिति सुऽशुक्वनिः। आ। अग्ने। याहि। सुशस्तिभिरिति सुशस्तिऽभिः॥४१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वत्कृत्यमाह॥
अन्वयः
हे स्वध्वर सज्जन विद्वन् गृहस्थ! त्वं सततमुत्तिष्ठ सर्वदा प्रयतस्व देव्या धिया नोऽव। हे अग्ने अग्निवत्प्रकाशमान! सुशुक्वनिस्त्वमु दृशे बृहता भासा सूर्य्य इव सुशस्तिभिः सर्वा विद्याऽऽयाहि। अस्माँश्च प्रापय॥४१॥
पदार्थः
(उत्) (उ) (तिष्ठ) (स्वध्वर) शोभना अध्वरा अहिंसनीया माननीया व्यवहारा यस्य तत्सम्बुद्धौ (अव) रक्ष। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङः [अष्टा॰६.३.१३५] इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (देव्या) शुद्धविद्याशिक्षापन्नया (धिया) प्रज्ञया क्रियया वा (दृशे) द्रष्टुम् (च) (भासा) प्रकाशेन (बृहता) महता (सुशुक्वनिः) सुष्ठु शुचां पवित्राणां वनिः संभक्ता (आ) (अग्ने) विद्वन् (याहि) प्राप्नुहि (सुशस्तिभिः) शोभनैः प्रशंसितैर्गुणैः। [अयं मन्त्रः शत॰६.४.३.९ व्याख्यातः]॥४१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वद्भिः शुद्धविद्याप्रज्ञादानेन सर्वे सततं संरक्ष्याः। नहि सुशिक्षामन्तरा मनुष्याणां सुखायान्यत् किंचिच्छरणमस्ति, तस्मादालस्यकपटादीनि कुकर्माणि विहाय विद्याप्रचाराय सदा प्रयतितव्यम्॥४१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर भी विद्वानों का कृत्य अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे (स्वध्वर) अच्छे माननीय व्यवहार करने वाले सज्जन विद्वन् गृहस्थ! आप निरन्तर (उत्तिष्ठ) पुरुषार्थ से उन्नति को प्राप्त हो के अन्य मनुष्यों को प्राप्त सदा किया कीजिये (देव्या) शुद्ध विद्या और शिक्षा से युक्त (धिया) बुद्धि वा क्रिया से (नः) हम लोगों की (अव) रक्षा कीजिये। हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान! (सुशुक्वनिः) अच्छे पवित्र पदार्थों के विभाग करने हारे आप (उ) तर्क के साथ (दृशे) देखने को (बृहता) बड़े (भासा) प्रकाशरूप सूर्य्य के तुल्य (सुशस्तिभिः) सुन्दर प्रशंसित गुणों के साथ सब विद्याओं को (आ, याहि) प्राप्त हूजिये (च) और हमारे लिये भी सब विद्याओं को प्राप्त कीजिये॥४१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् लोगों को चाहिये कि शुद्ध विद्या और बुद्धि के दान से सब मनुष्यों की निरन्तर रक्षा करें, क्योंकि अच्छी शिक्षा के विना मनुष्यों के सुख के लिये और कोई भी आश्रय नहीं है। इसलिये सब को उचित है कि आलस्य और कपट आदि कुकर्मों को छोड़ के विद्या के प्रचार के लिये सदा प्रयत्न किया करें॥४१॥
विषय
उठ खड़ा हो
पदार्थ
प्रभु कहते हैं कि — १. ( उ ) = निश्चय से ( उत्तिष्ठ ) = उठ खड़ा हो। उदास व निराश बनकर पड़ा मत रह।
२. ( स्वध्वरावा ) = [ सु अध्वर अव ] = उत्तम—हिंसा-शून्य कर्मों की रक्षा करनेवाला बन।
३. हे ( अग्ने ) = आगे बढ़नेवाले जीव! ( नः ) = हमारे पास ( आयाहि ) = आ! किस प्रकार! [ क ] ( देव्या धिया ) = [ देवनस्वभावया क्रीडापरया बुद्ध्या—म० ] इस संसार में प्रत्येक स्थिति को क्रीड़ापरक बुद्धि sportsman like spirit से लेते हुए, जय-पराजय में सम रहते हुए। दूसरे शब्दों में, स्थितप्रज्ञता के द्वारा। [ ख ] ( दृशे च ) = और सब संसार को ठीक रूप में देखने के लिए ( बृहता भासा ) = वृद्धिशील दीप्ति से—बढ़ते हुए ज्ञान से। नैत्यिक स्वाध्याय के द्वारा बढ़ती हुई ज्ञान-दीप्ति ही तो तुझ मेरे सान्निध्य को प्राप्त कराएगी। [ ग ] इस प्रकार ( सुशुक्वनिः ) = [ साधु शुचो रश्मीन् वनति सम्भजति—म० ]। उत्तम ज्ञान-दीप्तियों को प्राप्त करनेवाला तू ( सुशस्तिभिः ) = उत्तम कीर्तियों के द्वारा। उत्तम कर्मों के कारण प्राप्त यश के द्वारा तू हमारे समीप आनेवाला बन।
४. संक्षेप में, हृदय में दिव्य विचारों के द्वारा अथवा व्यवसायात्मिका बुद्धि के द्वारा, मस्तिष्क में वर्धमान ज्ञानाग्नि के द्वारा तथा हाथों में उत्तम यशस्वी कर्मों के द्वारा तू हमारे पास आनेवाला बन।
भावार्थ
भावार्थ — तू उठ खड़ा हो, अहिंसात्मक कर्मोंवाला बन। पवित्र बुद्धि, बढ़ते हुए ज्ञान तथा उत्तम प्रशंसनीय कर्मों से, हमें प्राप्त हो।
विषय
आदर पूर्वक उन्नत पद पर आना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! विद्वन् ! राजन् ! तू ( सु-अध्वरावा ) उत्तम अहिंसक, यज्ञमय रक्षा के कार्य व्यवहारों वाला होकर (नः) हमारे बीच में से ( देव्या ) देवी, अपनी धर्मपत्नी रानी सहित और ( धिया ) धारण पोषण समर्थ शक्ति एवं ध्यान करने में समर्थ बुद्धि के साथ (उत् तिष्ठ उ) उठ खड़ा हो, उन्नत पद पर स्थित हो । और ( बृहता भासा ) बड़े भारी प्रकाश, तेजसे सूर्य के समान ( सुशुक्वनिः) उत्तम पवित्र, कान्ति से युक्त या पवित्र आचारों से युक्त होकर ( सु-शस्तिभिः ) उत्तम कीर्त्तियों सहित, उत्तम शासन विधियों सहित और उत्तम शिक्षाओं और उत्तम गुणों सहित, उत्तम सधे घोड़ों से रथी के समान ( आयाहि ) हमें प्राप्त हो ॥ शत० ६ । ४ । ३ । ९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वमना ऋषिः । अग्निर्देवता । भुरिगनुष्टुप् । गांधारः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार अहे. विद्वानांनी सत्य, विद्या, बुद्धिबल यांनी सर्व माणसांचे रक्षण करावे. कारण चांगल्या शिक्षणाखेरीज माणसांना सुख मिळू शकत नाही. यासाठी सर्वांनी आळस व कपट सोडून विद्येचा प्रसार करण्याचा प्रयत्न केला पाहिजे.
विषय
पुढील मंत्रात विद्वानांच्या कर्तव्याविषयीं उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (समाजजनांची प्रार्थना विद्वानाप्रती) हे (स्वध्वर) श्रेष्ठ माननीय आचरण करणारे सज्जन विद्वान गृहस्थ, आपण सदा (उत्तिष्ठ) आपल्या पुरुषार्थ-श्रमाने उन्नती करा आणि त्याप्रमाणे अन्य मनुष्यानाही सदा तसा पुरुषार्ध करण्यास प्रवृत्त करा. तसेच आपण (देव्या) शुद्ध विद्या व ज्ञानाने समृद्ध अशा (धिया) बुद्धीद्वारे आणि क्रियांद्वारे (न:) आमचे (सामाजिक जनांचे) (अर) रक्षण करा. हे (अग्ने) अग्नीप्रमाणे प्रकाशमान (कीर्तिमान) आणि (सुशुक्वनि:) चांगल्या पवित्र पदार्थांचे यथोचित विभाग करणारे आपण (उ) तर्क व युक्तीसह (दृशे) पाहण्यासाठी जसा (बृहता) महान् (भारत) भासमान सूर्य आहे, त्याप्रमाणे (सुशस्तिभि:) सुंदर प्रशंसनीय गुणांसह सर्व विद्या (याहि) प्राप्त करा आणि तसेच आमच्याकरिता सर्व विद्यांचे आम्हांस दान द्या ॥41॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकुलप्तोपमा अलंकार आहे. विद्वज्जनांसाठी हे उचित कर्म हो की त्यांनी शुद्धविद्या आणि बुद्धिचे दान देऊन त्याद्वारे सर्व मनुष्यांची रक्षा करावी. कारण असे की उत्तम विद्येविना मनुष्यांकरिता सुखप्राप्तीचा अन्य कोणताही मार्ग वा आश्रमस्थान नाही. यासाठी सर्वांना उचित आहे की आलस्य, छल-कपट आदी कुकृत्य करणे सोडून सदैव विद्येच्या प्रचार-प्रसारासाठी यत्न करावेत. ॥41॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O householder, lord of good deeds, arise. With Godlike thought protect us well. Shining like fire, sharer of all good things verily splendid to behold like the resplendent sun ; study all sciences with thy praiseworthy qualities.
Meaning
Agni, worthy house-holder of yajnic work and conduct of love and non-violence, arise, and, with noble and virtuous intelligence, advance and protect us. Brilliant as fire and the sun, go forward with great splendour and fame, doing laudable work for all to see.
Translation
O fire divine, splendour of sacrifice, rise up. Protect us with divine intellect. Invoked by our praises, may you come with great light, spreading your rays, so that all may see. (1)
Notes
Susukvanih, सुशुचा संदीप्त: radiant with bright rays.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্বিদ্বৎকৃত্যমাহ ॥
পুনরায় বিদ্বান্দের কৃত্য পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে (স্বধ্বর) সুমাননীয় ব্যবহার সম্পন্ন সজ্জন বিদ্বান্ গৃহস্থ ! আপনি নিরন্তর (উত্তিষ্ঠ) পুরুষার্থ পূর্বক উন্নতি প্রাপ্ত হইয়া অন্য মনুষ্যাদিগকে সর্বদা প্রাপ্ত করাইতে থাকুন । (দেব্যা) শুদ্ধ বিদ্যা এবং শিক্ষাযুক্ত (ধিয়া) বুদ্ধি অথবা ক্রিয়া দ্বারা (নঃ) আমাদিগকে রক্ষা করুন । হে (অগ্নে) অগ্নিসদৃশ প্রকাশমান । (সুশুক্বনিঃ) সুষ্ঠু, পবিত্র পদার্থের বিভাজনকারী আপনি (উ) তর্ক সহ (দৃশে) দেখিতে (বৃহতা) বৃহৎ (ভাসা) প্রকাশরূপ সূর্য্যতুল্য (সুশস্তিভিঃ) সুন্দর প্রশংসিত গুণ সহ সব বিদ্যাকে (আ, য়াহি) প্রাপ্ত হউন (চ) এবং আমাদের জন্যও সব বিদ্যাকে প্রাপ্ত করুন ॥ ৪১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । বিদ্বান্দিগের উচিত যে, শুদ্ধ বিদ্যা ও বুদ্ধির দান দ্বারা সকল মনুষ্যকে সর্বদা রক্ষা করিবে কেননা সুশিক্ষা বিনা মনুষ্যদিগের সুখের জন্য অন্য কোনও আশ্রয় নেই । এই জন্য সকলের উচিত যে, আলস্য ও কপটাদি কুকর্ম ত্যাগ করিয়া বিদ্যা প্রচার হেতু সর্বদা সচেষ্ট থাকিবে ॥ ৪১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উদু॑ তিষ্ঠ স্বধ্ব॒রাবা॑ নো দে॒ব্যা ধি॒য়া ।
দৃ॒শে চ॑ ভা॒সা বৃ॑হ॒তা সু॑শু॒ক্বনি॒রাগ্নে॑ য়াহি সুশ॒স্তিভিঃ॑ ॥ ৪১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উদু তিষ্ঠেত্যস্য বিশ্বমনা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ভুরিগনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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