यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 25
परि॒ वाज॑पतिः क॒विर॒ग्निर्ह॒व्यान्य॑क्रमीत्। दध॒द् रत्ना॑नि दा॒शुषे॑॥२५॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑। वाज॑पति॒रिति॒ वाज॑ऽपतिः। क॒विः। अ॒ग्निः। ह॒व्यानि॑। अ॒क्र॒मी॒त्। दध॑त्। रत्ना॑नि। दा॒शुषे॑ ॥२५ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परि वाजपतिः कविरग्निर्हव्यान्यक्रमीत् । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठ
परि। वाजपतिरिति वाजऽपतिः। कविः। अग्निः। हव्यानि। अक्रमीत्। दधत्। रत्नानि। दाशुषे॥२५॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्गृहस्थः कीदृशो भवेदित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यो वाजपतिः कविर्दाता गृहस्थो दाशुषे रत्नानि दधदिवाग्निर्हव्यानि पर्य्यक्रमीत् तं त्वं जानीहि॥२५॥
पदार्थः
(परि) सर्वतः (वाजपतिः) अन्नादिरक्षको गृहस्थ इव (कविः) क्रान्तदर्शनः (अग्निः) प्रकाशमानः (हव्यानि) होतुं ग्रहीतुं योग्यानि वस्तूनि (अक्रमीत्) क्रामति (दधत्) धरन् (रत्नानि) सुवर्णादीनि (दाशुषे) दातुं योग्याय विदुषे॥२५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। विद्वानग्निना पृथिवीस्थपदार्थेभ्यो धनं प्राप्य सुमार्गे सत्पात्रेभ्यो दत्त्वा विद्याप्रचारेण सर्वान् सुखयेत्॥२५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर गृहस्थ कैसा होवे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वन्! जो (वाजपतिः) अन्न आदि की रक्षा करने हारे गृहस्थों के समान (कविः) बहुदर्शी दाता गृहस्थ पुरुष (दाशुषे) दान देने योग्य विद्वान् के लिये (रत्नानि) सुवर्ण आदि उत्तम पदार्थ (दधत्) धारण करते हुए के समान (अग्निः) प्रकाशमान पुरुष (हव्यानि) देने योग्य वस्तुओं को (परि) सब ओर से (अक्रमीत्) प्राप्त होता है, उस को तू जान॥२५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। विद्वान् पुरुष को चाहिये कि अग्निविद्या के सहाय से पृथिवी के पदार्थों से धन को प्राप्त हो अच्छे मार्ग में खर्च कर और धर्मात्माओं को दान दे के विद्या के प्रचार से सब को सुख पहुंचावे॥२५॥
विषय
वाजपतिः कविः
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र का गृत्समद ऋषि प्रभु-स्तवन करता हुआ शक्तिशाली बनता है, परन्तु उस सब शक्ति का पति प्रभु को समझता हुआ वह अत्यन्त विनीत बना रहता है। इस विनीतता के कारण वह ‘सोमक’ कहलाता है [ सौम्य = विनीत ]। यह सोमक कहता है कि— २. वह ( वाजपतिः ) = सब अन्नों व शक्तियों का स्वामी प्रभु ( कविः ) = क्रान्तदर्शी है, तत्त्व का ज्ञान रखनेवाला है। वह प्रभु ही वस्तुतः अपने भक्तों को अन्नों से शक्तिशाली बनाता है और तत्त्व-ज्ञान देता है।
३. इस प्रकार वे प्रभु ( अग्निः ) = हमें आगे और आगे ले-चलनेवाले हैं, हमारी सब उन्नतियों के कारण हैं।
४. वे प्रभु ही ( हव्यानि ) = [ ग्रहीतुं योग्यानि वस्तूनि—द० ] सब ग्रहण के योग्य वस्तुओं को ( परिअक्रमीत् ) = चारों ओर आक्रान्त किये हुए हैं। सब उपादेय वस्तुओं के अधिष्ठाता वे प्रभु ही हैं। उन्नति के लिए सब आवश्यक वस्तुओं को वे प्रभु ही प्राप्त कराया करते हैं।
५. वे प्रभु ( दाशुषे ) = दाश्वान् के लिए—अपने को उस प्रभु के प्रति दे डालनेवाले के लिए ( रत्नानि ) = रमणीय पदार्थों को ( दधत् ) = धारण करते हैं। जैसे एक बालक स्वयं अपनी आवश्यकताओं को अच्छी प्रकार नहीं समझता, परन्तु उसकी माता उसे सब आवश्यक पदार्थ प्राप्त कराती है, इसी प्रकार समर्पण करनेवाले भक्त को प्रभु भी जननी की भाँति सब रमणीय पदार्थ देते हैं। इन रमणीय पदार्थों से अपनी सम्यक् उन्नत्ति करता हुआ प्रभु-भक्त शरीर में शक्ति का पति बनता है तो मस्तिष्क से तत्त्व-द्रष्टा बनता है।
भावार्थ
भावार्थ — प्रभु के प्रति आत्मसमर्पण करते हुए हम प्रभु से दिये रमणीय पदार्थों के सम्यक् प्रयोग से शक्ति व ज्ञान के पति बनें।
विषय
अग्नि सेनापति का वर्णन ।
भावार्थ
( वाजपति: ) संग्राम का पालक, सेनापति ( कवि: ) दूर देश तक दर्शन करने में समर्थ, कान्तदर्शी, दूरदर्शी ( अग्निः ) अग्नि के समान तेजस्वी, एवं अग्रणी होकर ( हव्यानि ) प्राप्त करने योग्य, विजय करने योग्य स्थानों पर ( परि अक्रमीत् ) आक्रमण करे और ( दाशुषे ) करादि दान देनेवाले या दान योग्य प्रजाजन को (रत्नानि ) नाना रमणीय, रत्न सुवर्ण आदि पदार्थ ( दधत् ) प्रदान करे । गृहपति के पक्ष में-- ( वाजपतिः ) अन्नादि का पालक विद्वान् अग्नि के समान तेजस्वी होकर ( हव्यानि ) ग्रहण योग्य पदार्थों को प्राप्त करे । ( दाशुषे ) दान योग्य ब्राह्मण, अतिथि आदि को ( रत्नानि दधत् ) सुवर्ण रत्नादि प्रदान करे ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सोमक ऋषिः । अग्निर्देवता । निचृद् गायत्री । षड्जः ॥
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रत वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. विद्वान माणसांनी अग्निविद्येच्या साह्याने पृथ्वीवरील धन प्राप्त करून घ्यावे व चांगल्या कामासाठी खर्च करावे. धर्मात्मा लोकांना दान करावे व विद्येचा प्रसार करून सर्वांना सुख द्यावे.
विषय
गृहस्थजनाने कसे असावे, पुढील मंत्रात हा विषय प्रतिपादित आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे विद्वान (अथवा बुद्धिमान मनुष्या) जो माणूस (वाजपति:) अन्न आदीचे रक्षण, संग्रह करतो (ज्याच्याजवळ पुष्कळ धान्य आहे) तसेच जो (कवि:) बहुविवेकी क्रांतदर्र्शी गृहस्थ आहे आणि ज्याच्याजवळ (दाशुषे) दान देण्यास पात्र असलेल्या व्यक्तीला देण्यासाठी (रत्नानि) सुवर्ण आदी उत्तम पदार्थ (दधत्) आहेत (वा जो धारण करीत आहे) असा (अग्नि:) अग्नीप्रमाणे कीर्तिमान पुरुष (हव्यानि) देण्यास योग्य अशा वस्तू (परि) सर्वदिशांनी (अक्रमीत्) प्राप्त करीत असतो ( हे दानी व्यक्तीला दान करण्यासाठी पुष्कळ मिळत जाते, त्यास कधी कमी पडत नाही) हे विद्वान मनुष्या, तू अशा व्यक्तीचा शोध घे वा त्यास सन्मान दे ॥25॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. विद्वान मनुष्याला पाहिजे की अग्निविद्येच्या साहाय्याने पृथ्वी आदी पदार्थांपासून धन प्राप्त करावे, त्या धनाचा योग्य मार्गाने व्यय करावा, धर्माला जनांना दान द्यावे अपर्ण विद्येचा प्रचार-प्रसार करून सर्वांना सुखी करावे ॥25॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person, know thou, the handsome, charitably-disposed renowned person, giving in charity gold to the learned person who acquires from all sides substances fit for charity, like the householders who preserve foodstuffs.
Meaning
Agni, creator, producer, preserver and giver of food and energy, omniscient eye of the universe, holds and wields the wealth of the world for the generous and the deserving people. Through the fire, He receives and universally disperses the materials offered in yajna by the house-holders.
Translation
This sage, fire of the altar, the source of strength, encompasses the essences of oblation, giving precious boons to the offerer. (1)
Notes
This and next two mantras are taken from Rgveda IV. 15. 3; X. 87. 22 and II. 1. 1.
बंगाली (1)
विषय
পুনগৃর্হস্থঃ কীদৃশো ভবেদিত্যাহ ॥
পুনঃ গৃহস্থ কেমন হইবে এই বিষয়ে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ ! যে (বাজপতিঃ) অন্নাদির রক্ষক গৃহস্থদিগের ন্যায় (কবিঃ) বহুদর্শী দাতা গৃহস্থ পুরুষ (দাশুষে) দান দেওযার যোগ্য বিদ্বানদিগের জন্য (রত্নানি) সুবর্ণাদি উত্তম পদার্থ (দধৎ) ধারণকারীর ন্যায় (অগ্নিঃ) প্রকাশমান পুরুষ (হব্যানি) প্রদানকরার যোগ্য বস্তুগুলিকে (পরি) সব দিক হইতে (অক্রমীৎ) প্রাপ্ত হয় তাহাকে তুমি জান ॥ ২৫ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । বিদ্বান্ পুরুষদিগের উচিত যে, অগ্নিবিদ্যার সাহায্যে পৃথিবীর পদার্থ সকল হইতে ধনকে প্রাপ্ত হইবে, সুমার্গে ব্যয় করিবে এবং ধর্মাত্মাদিগকে দান করিয়া বিদ্যা প্রচার দ্বারা সকলকে সুখ দিবে ॥ ২৫ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
পরি॒ বাজ॑পতিঃ ক॒বির॒গ্নির্হ॒ব্যান্য॑ক্রমীৎ ।
দধ॒দ্ রত্না॑নি দা॒শুষে॑ ॥ ২৫ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
পরি বাজপতিরিত্যস্য সোমক ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ।
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