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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 13
    ऋषिः - हैमवर्चिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    दी॒क्षायै॑ रू॒पꣳ शष्पा॑णि प्राय॒णीय॑स्य॒ तोक्मा॑नि। क्र॒यस्य॑ रू॒पꣳ सोम॑स्य ला॒जाः सो॑मा॒शवो॒ मधु॑॥१३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दी॒क्षायै॑ रू॒पम्। शष्पा॑णि। प्रा॒य॒णीय॑स्य। प्रा॒य॒नीय॒स्येति॑ प्रऽअय॒नीय॑स्य। तोक्मा॑नि। क्र॒यस्य॑। रू॒पम्। सोम॑स्य। ला॒जाः। सो॒मा॒शव॒ इति॑ सोमऽअ॒ꣳशवः॑। मधु॑ ॥१३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दीक्षायै रूपँ शष्पाणि प्रायणीयस्य तोक्मानि । क्रयस्य रूपँ सोमस्य लाजाः सोमाँशवो मधु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दीक्षायै रूपम्। शष्पाणि। प्रायणीयस्य। प्रायनीयस्येति प्रऽअयनीयस्य। तोक्मानि। क्रयस्य। रूपम्। सोमस्य। लाजाः। सोमाशव इति सोमऽअꣳशवः। मधु॥१३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 13
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    भावार्थ - या मंत्रात पूर्वीच्या मंत्रातील ‘अतन्वत’ या क्रियापदाची अनुवृत्ती झालेली आहे. जी माणसे यज्ञासाठी योग्य पदार्थ प्राप्त करतात, तसेच उत्तम संताने निर्माण करतात, ती या जगात सुख प्राप्त करू शकतात.

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