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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 88
    ऋषिः - शङ्ख ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - स्वराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    मुख॒ꣳ सद॑स्य॒ शिर॒ऽइत् सते॑न जि॒ह्वा प॒वित्र॑म॒श्विना॒सन्त्सर॑स्वती। चप्यं॒ न पा॒युर्भि॒षग॑स्य॒ वालो॑ व॒स्तिर्न शेपो॒ हर॑सा तर॒स्वी॥८८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मुख॑म्। सत्। अ॒स्य॒। शिरः॑। इत्। सते॑न। जि॒ह्वा। प॒वित्र॑म्। अ॒श्विना॑। आ॒सन्। सर॑स्वती। चप्य॑म्। न। पा॒युः। भि॒षक्। अ॒स्य॒। वालः॑। व॒स्तिः। न। शेपः॑। हर॑सा। त॒र॒स्वी ॥८८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मुखँ सदस्य शिरऽइत्सतेन जिह्वा पवित्रमश्विनासन्त्सरस्वती । चप्यन्न पायुर्भिषगस्य वालो वस्तिर्न शेपो हरसा तरस्वी ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मुखम्। सत्। अस्य। शिरः। इत्। सतेन। जिह्वा। पवित्रम्। अश्विना। आसन्। सरस्वती। चप्यम्। न। पायुः। भिषक्। अस्य। वालः। वस्तिः। न। शेपः। हरसा। तरस्वी॥८८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 88
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    भावार्थ - स्री-पुरुषांनी गर्भाधानाच्या वेळी परस्पर प्रेमानेयुक्त होऊन मुखाबरोबर मुख, नेत्राबरोबर नेत्र, मनाबरोबर मन, शरीराबरोबर शरीर जुळवून गर्भधारणा करावी म्हणजे कुरूप किंवा वक्रांग संतान होणार नाही.

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